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प्रवर्तन से 40 लाख रु० प्राप्त हुए जिनसे 'गोम्मटेश्वर न्यास' की स्थापना हुई । महामस्तकाभिषेक का पावन समारोह एलाचार्य मुनि श्री विद्यानन्दजी के सान्निध्य में सुसम्पन्न हुआ, वही मानो इस महोत्सव के सूत्रधार थे, रूहेरवां थे । श्रवणबेलगोला के भट्टारक स्वामी श्री चारुकीर्ति ने पुरस्कर्त्ता के रूप में अपना अनुपम योग दिया। समारोह समिति के अध्यक्ष धर्मानुरागी साहू श्रेयांस प्रसाद जैन ने सम्पूर्ण महोत्सव को-आदि से अंत तक सफल बनाने में तन-मन-धन का अभूतपूर्व योग देकर एक अभिनन्दनीय कार्य किया । उन्हें इस महापर्व पर श्रावक - शिरोमणि की उपाधि भी प्रदान की गई, जो उनके यशस्वी व्यक्तित्व और जनमंगलकारी कार्यों का प्रतीक है । प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने महामस्तकाभिषेक के सुप्रवसर पर हेली - कोप्टर से पुष्प वर्षा की, प्रार्थना सभा में भाग लिया जो उनकी सर्वधर्मसमभाव दृष्टि का उज्ज्वल उदाहरण है। मुनि श्री विद्यानन्दजी ने उन्हें सम्राट अशोक के समान धर्मानुराणी एवं धर्मप्रचारक कहा, जो पूर्णतः सत्य है ।
भगवान बाहुबली की प्रतिमा स्थापना के बाद महामस्तकाभिषेक के विवरण 1398 में उत्कीर्णित एक शिलालेख से आरम्भ होते हैं जिसमें कहा गया कि पहले किसी पंडिताचार्य' ने सात बार महामस्तकाभिषेक कराये थे । अन्य अभिलेखों के अनुसार 17वी शताब्दी में तीन बार, 18वीं शताब्दी में एक बार, 19वीं शताब्दी में चार बार ऐसे समारोह प्रायोजित किये गये । 1887 में कोल्हापुर के श्री लक्ष्मीसेन भट्टारक ने 14 मार्च को 30,000 रु० व्यय कर यह महोत्सव कराया था । 20वीं शताब्दी में 1900, 1910, 1925, 1940,
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1953, 1967 और इस वर्ष 1981 (फरवरीमार्च) में महामस्तकाभिषेक महोत्सव परिसम्पन्न हुए। पहले मिट्टी के घड़े, रंग पुते होते थे, अब सोने, चांदी, तांबे आदि के कलश बनाये जाते हैं जो 1008 कलश महामस्तकाभिषेक में प्रयुक्त होते हैं वे धर्मानुरागी लोग बहुत-सा रुपया देकर खरीदते हैं । 1940 में प्रथम ऐसा स्वर्ण कलश 8001 रु० में बिका था, 1967 में पहला कलश 47500 रु० में खरीदा गया था और इस बार प्रथम 10 एक-एक लाख रु० में खरीदे गये । इतने धन से कलशों को खरीदना जहां धर्मभावना का द्योतक है वहां त्याग और दान की उदारता को भी प्रकट करता है ।
महामस्तकाभिषेक महोत्सव धार्मिक सहिष्णुता, सर्वधर्मसमभाव की भावना के साथ हमारी राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय संस्कृति की समन्वयवादी भावना का शुभ्र दृष्टान्त प्रस्तुत करता है । अतः यह एक राष्ट्रीय महोत्सव था जिसमें विभिन्न प्रान्तों के लोगों ने, विभिन्न भाषा-भाषियों ने सहर्ष हार्दिक योग दिया । इससे जैन धर्म के मानवतावादी स्वरूप और उसकी अनेकान्तवादी दृष्टि का सम्यक् परिचय प्राप्त हो जाता है | भगवान बाहुबली ने जिस श्रहिंसा भाव का, त्याग और उत्सर्ग का साक्षात उदाहरण प्रस्तुत किया वह आज भी अपनी प्रासंगिकता बनाए है । वह भारतीय सांस्कृतिकादर्शोंसौंदर्य, शील और शक्ति की सान्द्र और उन्निद्र प्रतिमा हैं ।
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