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चलता है कि दक्षिण में इसके उपासक राजन्यवर्ग यह कितना अनूठा उदाहरण है । काश ! इस पर के लोग ही नहीं थे, वणिक वर्ग और कृषक वर्ग के अमल किया गया होता। आगे इसी लेख में कहा लोग भी थे। तेली, सोनी, जौहरी आदि वर्ग के गया है जो कोई इसका उल्लंघन करे, वह राज्य लोगों ने भी पूजा, अभिषेक आदि में सक्रिय हाथ का, संघ का, समुदाय का, द्रोही ठहरेगा। यदि बंटाया है और अपनी शक्ति के अनुसार दान आदि कोई तपस्वी, ग्रामाधिकारी इस धर्म का प्रतिघात दिए हैं। धार्मिक सहिष्णुता और उदारता का करेगा तो वह गंगातट पर एक कपिल गौ और संकेत शिलालेख संख्या 136 (344) से मिलता ब्राह्मण की हत्या का भागी होगा। है। कहा जाता है कि वीर बुक्कराय के राज्यकाल में जैनियों और वैष्णवों में झगड़ा हो गया। तब उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि श्रवणबेलराजा ने जैनियों और वैष्णवों के हाथ से हाथ गोला तीर्थ ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृमिला दिए और कहा कि जैन और वैष्णव के तिक, कलात्मक एवं राष्ट्रीय सभी दृष्टियों से दर्शनों में कोई भेद नहीं है । जैन दर्शन को पूर्ववत् अप्रतिम और अपूर्व है । यह किसी वर्ग या धर्म ही पंच महावाद्य और कलश का अधिकार है। विशेष की सम्पत्ति न होकर अखिल मानवता की यदि जैन दर्शन को हानि या वृद्धि हुई तो वैष्णवों अमूल्य निधि है । इसमें साधना का वह तेज और को इसे अपनी ही हानि या वृद्धि समझनी चाहिए। सामर्थ्य अन्तनिहित है जिसका स्पर्श पाकर मनुष्यवैष्णवों को इस विषय के शासन समस्त राज्य की मनुष्य के ही नहीं, प्राणिमात्र के हृदय प्रेम एवं बस्तियों में लगा देना चाहिए । धार्मिक सौहार्द का मैत्रीभाव से झंकृत हो उठते हैं।
-सी-235 ए. तिलकनगर, जयपुर-4
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