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श्रवणबेलगोल और नारी
-डा० श्रीमती शान्ता भामावत,
प्रिसिन्पल, वीर बालिका महाविद्यालय, जयपुर।
जैन संस्कृति में नारी पुरुष की दासी नहीं, सहयोगिनी ही है । प्रात्मोद्धार में उतनी ही स्वतन्त्र है जितना पुरुष । श्रवणबेलगोल का पत्थर पत्थर साक्षी है ।
-सम्पादक
स्त्री पुरुष विश्वरथ के दो पहिये हैं। उसमें न मोड़ लेते है, तब राजीमती विरह-विदग्ध होकर कोई छोटा है और न कोई बढ़ा । दोनों की समा- विभ्रान्त नहीं बनती, प्रयुक्त विवेक पूर्वक अपना नता ही रथ की गति-प्रगति है। इतिहास के पुष्ठ गन्तव्य निश्चित कर साधना पथ पर अग्रसर होती उलट कर देखें जायें तो प्रतीत होगा कि नारी है। सीता सावित्री, अन्जना, मैनासुन्दरी, चन्दनजाति ने सदैव मानव जाति को नई ज्योति, नई बाला, द्रोपदी आदि अनेक नारियों ने अपने प्रेरणा और नई चेतना प्रदान की है। सन्तान, तेजस्वी व्यक्तित्व से नारी जाति को गौरवान्वित चरित्र, कुल धर्म और संस्कृति की रक्षा का श्रेय किया है । नारी वर्ग को ही है। जैन दर्शन और साहित्य में नारी के विवध रूपों का चित्रण हया है। यहां समाज की रचना-प्रक्रिया धर्म एवं संस्कृति के नारी के भोग्या स्वरुप की सर्वत्र भर्त्सना की गई है संरक्षण और पोषण तथा राष्ट्रोत्थान के महनीय
और साधिका स्वरूप की सर्वत्र वन्दना-स्तवना। कार्यों में नारी के योगदान को कभी विस्मृत नहीं जननी, पत्नी भगिनी, पूत्री रूप में नारी ने सदैव किया जा सकता। भारतवर्ष में पूर्व से लेकर पथभ्रमित मानव को सही रास्ता दिखाया। श्वेता- पश्चिम तक तथा उत्तर से लेकर दक्षिण तक सभी म्बर मान्यता के अनुसार तपस्या में लीन बाहुबली दिशाओं में नारियों ने पुरुषों के साथ कन्धे से कंधा को, उनके मन में निहित अहंभाव को दूर करने मिला कर प्रत्येक महत्वपूर्ण कार्य में योगदान की प्रेरणा देने वाली उनकी बहिनें भगवान् दिया है। ऋषभदेव की दो पुत्रियां ब्राह्मी और सुन्दरी ही थीं। राजीमती से विवाह करने के लिये बरात यह संयोग ही है कि जैनधर्म के 24 तीर्थकरों सजाकर पाने वाले नेमिनाथ जब बाड़े में बंधे का जन्म और निर्वाण उत्तर भारत में हुआ पर पशुओं का करुण क्रन्दन सुनकर विवाह से मुंह भगवान महावीर के बाद दक्षिण में जैन धर्म एक
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