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कर शास्त्रवचनों द्वारा मन को प्रसन्न एवं उत्सा हित करे ।
उपर्युक्त भावपूर्ण वातावरण में मृत्यु का वरण वही कर सकता है जिसे परिवार, राज्य सत्ता और स्वयं अपने से मोह न हो। यह निर्मोही अवस्था वही प्राप्त कर सकता है जिसने अपने कषायों, आन्तरिक विकारों पर विजय प्राप्त कर ली है । श्रवणबेलगोला के लगभग सौ लेख तप और संलेखना से सम्बन्धित हैं। वे शिलालेख इस मादर्श को ध्वनित करते हैं कि सच्ची विजय दूसरों को अधीन बनाने, सत्ता या धन हथियाने में नहीं है। सच्चा वीर वह हैं जो स्वयं बंधन मुक्त होकर दूसरों को भी बंधन मुक्त करता है, जो स्वयं दबता नहीं, घोर न दूसरों को दबाता है। बाहुबलि इस सच्ची वीरता के प्रादर्श हैं जिन्होंने पर-दमन को नहीं, आत्म-दमन को सर्वोपरि माना और जीतकर भी जीत को लौटा दिया। उनकी भव्य और विशाल मूर्ति प्रेरणा देती है कि हिम, वर्षा और आतप रूप कितने ही उपसर्ग और संकट आए. फिर भी निर्द्वन्द्व मुस्कराते रहो, समता में बने रहो ।
3. लोक कल्याण - युद्ध वीरता और धर्म वीरता के विवेकपूर्ण समन्वय से लोक कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है। यदि युद्ध वीरता अपने ही मांग और अहंपूर्ति तक सीमित रहती है तो वह पतन और पाप का कारण बनती है । इसी प्रकार यदि धर्मवीरता अपने ही कल्याण तक सीमित रहती है तो वह वरेण्य और वन्दनीय नहीं बन पाती । समाज से और लोकहित से जुड़ कर हो धर्म शक्तिवान और तेजस्वी बनता है। इस दृष्टि से धर्म के दो स्तर हैं। एक व्यक्ति या आत्मा का स्तर, दूसरा समाज या लोक कल्याण का स्तर । पहले स्तर के धर्म है क्षमा, सरलता, बिनम्रता सत्यनिष्ठा तप, त्याग, संतोष, संयम, ब्रह्मचर्य आदि। इन धर्मों की कसौटी समूह या
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समाज है । एकान्त में रहने पर न इनका अंकुरण हो पाता है और न परीक्षणा पारस्परिकता में ही ये फलते फूलते हैं। इस दृष्टि से ही 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' की उक्ति सार्थक घटित होती है। अपने सुख की चिन्ता न करते हुए दूसरों को सुखी बनाने के लिए उनके दुःखों का निवारण करने में कोई कितना प्रागे बढ़ता है, यही उसके लोक धर्म व लोककल्याण की कसौटी है भगवान् बुद्ध किसी वृद्ध और मृत को देखकर संसार को दुःखपूर्ण मानकर उसे दुख से मुक्त करने के लिए महाभिनिष्क्रमण करते हैं, भगवान् महावीर मनुष्य के द्वारा मनुष्य के शोषण को देखकर शोषण व शासन विहीन स्वराज्य की प्राप्ति के लिए संन्यस्त होते हैं। महर्षि दाधीच देवताओं के लिए अपना शरीर समर्पित करते हैं, और ईसा यहां तक कह देते हैं कि दूसरों के दुःखों के लिए मैं जिम्मेदार
| इसी बिन्दु से लोककल्याण और लोक सेवा का उत्स फूटता है। जैन धर्म आत्मवादी और पुरुषार्थ प्रधान धर्म है। वह व्यक्ति के सुख-दुख के लिए उसके कर्मों को ही उत्तरदायी मानता है । फिर भी यहां सेवा को अत्यधिक महत्व दिया गया है । अभ्यन्तर तपों में उसकी गणना की है । उत्तराध्ययन सूत्र के 29वें अध्ययन 'सम्यक्त्व पराक्रम' में गौतम स्वामी भगवान महावीर से प्रश्न करते हैं- 'वेयावच्चे भंते ! जीवे कि जणयइ ।'
भगवान ! वैयावृत्ति अर्थात् सेवा से जीव को क्या लाभ होता है। भगवान महावीर उत्तर में फरमाते हैं
'वेयावच्चे
तिथ्थरनामगोत्तं कम्मं निबंध्द्ध ।' अर्थात् वैयावृत्त से तीर्थकर नाम गोत्र का कर्म बंध होता है।
इससे स्पष्ट है कि तीर्थकर लोकसेवा के लिए मार्ग प्रशत्त करते हैं । इसी भावना से वे धर्मतीर्थ
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