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मैं भोग मांगता है, लेकिन यदि वह निरपेक्ष निरकांक्षा मौर वीतरागी हो तथा निजबोध को प्राप्त करे, तो वह अपने अन्दर अनन्त शक्तियों का स्त्रोत अनुभव करेगा | भगवान महावीर ने कहा है, !" मनुष्य स्वयं अपने दुःख-सुख का कर्ता - विकर्ता है । सुप्रस्थित धौर दुष्प्रस्थित जीव क्रमशः अपना अपना मित्र और शत्रु स्वयं है।" मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का विधाता है वह स्वयं को जंसा चाहे बना सकता है । वह अपना स्वामी आप ही है । मनुष्य की आत्मा में ही स्वर्ग और नर्क है आत्मा में ही स्वर्ग की वैतरकी नदी है। आत्मा में ही शाल्मली वृक्ष है । आत्मा में ही कामधेनु है । आत्मा में ही नन्दनवन है।" प्रतएव जैन धर्म अन्य मानव धर्म की भांति ईश्वर के प्रति समर्पण के स्थान पर स्वावलंबन पर और देता है । इसके अनुसार प्रात्मवान होने से ही मोक्ष संभव है।
जैन धर्म स्ववादी है, लेकिन स्वार्थवादी नहीं । यह प्राणी मात्र के कल्याण पर बल देता है क्योंकि महिंसा इसका मूल मंत्र है। जैन धर्म में अहिसा पर अत्यधिक जोर है, क्योंकि किसी प्राणी को तनिक भी कष्ट देना इसे सह्य नहीं है । जो व्यक्ति पूर्णतः वीतरागी हो जाता है, वही जगत मात्र का हित कर सकता है, क्योंकि तनिक भी राग रहने पर निष्काम सेवा संभव नहीं है । वैसी सेवा मात्र सुविधाजनक नैतिकता हो सकती है, लेकिन वैसी सेवा पुरस्कार मांगने लगती है। प्रतएव जैन दर्शन ग्रात्म शुद्धि पर अधिक जोर देता है और अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अस्तेय, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह इत्यादि को सद्गुण मानता है,
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7. अप्पा कता विकता य सुहारण य दुहारण य ।
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अप्पा मित्तं अमित्त य सुपट्ठय दुपट्ट्य ॥ उत्तराध्ययन सूत्र 20/37 8. अप्पा नई वेबरणो धप्पा में कूड सामती ।
अप्पा काम दुहा धेनु अप्पा में नन्दनं वनं ॥
उत्तराध्ययन 20/36
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मानववादी श्राचार शास्त्र के आधार स्तम्भ हैं । जैन दर्शन में मानव कल्याण एवं मानव सेवा को अत्यधिक महत्व दिया गया है। यद्यपि इसमें पृष्ठभूमि मुख्यतः प्राध्यामिक हैं, फिर भी यह जगत की समस्यायें और मानव पीड़ा को झुठलाता नहीं है। प्राध्यात्मिक धर्म के साथ साथ ग्राम धर्म नगर धर्म और राष्ट्र धर्म को भी महत्व दिया गया है । है। भगवान महावीर ने कहा है कि यदि कोई श्रमण संकटग्रस्त और दुःखी मनुष्य की सेवा करने के बजाय तपस्या, मनन और साधना में लगा रहे तो वह पापी हैं। वह संघ में रहने का अधिकारी नहीं हैं। उसे 120 उपवास करना चाहिये, अन्यथा वह आत्म शुद्धि लाभ नहीं कर सकता है। उन्होंने कहा है, "यदि कोई श्रमण दूसरे सन्यासी को किसी ग्राम में बीमार देखकर उसकी सेवा और देखभाल किए बगैर आगे बढ़ जाता है, तो वह महापापी हैं । इस प्रकार जैन धर्म मानवता की सेवा या 'वैय्यावृत' को परम तप मानता है। "
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जैन धर्म किसी ईश्वर को प्रदर्श नहीं मानता हैं और न किसी ईश्वर के अवतार की प्रतीक्षा ही करता हैं, बल्कि यह मनुष्य को ईश्वरत्व की उपलब्धि करसे की देशना देता हैं। इसके प्रदर्श जीवन पथ पर चलते हुए वे सजीव मानव हैं जिन्होंने राग-द्वेष पर विजय प्राप्त कर मृत तत्व को उपलब्ध किया हैं । इस कारण जैन धर्म के " णमोकार मंत्र" में अर्हन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय धौर सभी साधुधों को नमस्कार किया गया हैं, न कि किसी देवी, देवता या ईश्वर को । णमो अरिहन्ताणं, रामो सिद्धाणं णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं ॥
9. स्थानांग सूत्र, दशम स्थान 10. देखिये निशीध सूत्र
11. उत्तराध्ययन सूत्र (तपोमार्ग अध्ययन )
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व्याख्याता, पथरगामा महाविद्यालय संथाल परगना-बिहार
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