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नैतिक चारित्र के अपरिवर्तनीय आयाम
प्रस्तुत लेख में जानेमाने विद्वान लेखक ने नैतिकता का अपरिवर्तनीय आयाम वस्तु के स्वरूप में देखा है । वस्तु स्वरूप नहीं बदलता तो नैतिकता का मूलाधार भी कभी बदल नहीं सकता, न इतिहास में कभी बदला है । बाह्याचार कदाचित् बदलता रहा है । इस परिवर्तनीय आयाम की भी लेखक ने विस्तार से चर्चा की है । यह श्रायाम युगानुसार ही होना चाहिए और इसका आदर्श समय-समय पर तीर्थंकर, समर्थं प्राचार्य, प्रबुद्ध शासक करते रहते हैं ।
दोनों प्रायामों के प्रति समुचित न्याय ही नैतिकता को और धर्म को जीवित रखते हैं ।
-सम्पादक
किसी वस्तु का परानपेक्ष निजी 'स्व-स्वाभाव' ही उस वस्तु का धर्म होता है । श्रात्मा या जीवात्मा भी एक वस्तु है, तत् पदार्थ है, अतएवं उसके निजी शाश्वत गुरग ही उसके स्व-भाव या धर्म हैं । अतएवं उसके शाश्वत गुण ही उसके स्वभाव या धर्म हैं। मनुष्य जीवात्मा का ही एक, किन्तु अनेक दृष्टियों से सर्वाधिक महत्वपूर्ण रूप या पर्याय है, अतः मनुष्य का वास्तविक धर्म या सहज स्वभाव मनुष्यत्व या मानवता है । जिनवाणी के अनुसार परमार्थ से चारित्र ही धर्म है, और चारित्र से तात्पर्य है समत्वभाव - आत्मा के मोह-ओोभविहीन अपने सहज परिणाम या भाव का। मोह, राग-द्वेष, काम, क्रोध, मान माया, लोभ श्रादि विविध आत्मिक विकारों से रहित मनुष्यात्मा की जो आकुलता व्याकुलता विहीन, परानपेक्ष, सहज शान्त परिणति या दशा है, वही उनका समभाव
विद्यावारिधि डा० ज्योतिप्रसाद जैन
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है, धर्म है, चारित्र या चरित्र है । यह अन्तरंग की चीज है । इसी अन्तरंग चरित्र की जब व्यक्ति के मन वचन काय की क्रियाओं द्वारा अभिव्यक्ति होती है तो वही उसका बाह्य चारित्र, प्राचरण या शील कहलाता है । इसी के आधार पर व्यक्ति विशेष सच्चरित्र, सदाचारी या चारित्रवान कहलाता है । और यदि वह अपने स्वभाव से च्युत होकर काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों से ग्रस्त होता है तो उसका बाह्य प्राचरण भी उन्हीं के रंग के रंग जाता है, और वह व्यक्ति दुश्चरित्र दुराचारी या चरित्रहीन कहलाता है ।
उक्त सम्यक् या सुचारित्र की पहली शर्त है वस्तुतत्व तथा जीवन के प्रति समीचीन दृष्टि प्राप्त करना, और ऐसी सम्मग्दृष्टि तभी प्राप्त होती है जब व्यक्ति वस्तुस्वरूप को, स्वयं अपने आपको तथा इतर पदार्थों को यथार्थ रूप में यथोचित जान समझ लिया है, हृदयंगम कर लिया है । इस
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