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राज्य व्यवस्था, शासन या दंड विधान की प्राव- लिए बंध जाती थी। बहधा उसर्क श्यकता नहीं थी । बहुत हुआ तो 'हा' 'मा' "धिक' उसके साथ सती हो जाती थी और यह नैतिक जैसे शब्दों से काम चलता था। जब प्रादि देव था। प्राज सती दाह दण्डनीय है। विवाहऋषभनाथ ने कर्म प्रधान मानवी सभ्यता का उँ विच्छेद अनैतिक नहीं है। विधवा विवाह भी नमः किया तब भी लोग इतने सरल परिणामी विधुरविवाह की भांति ही अनैतिक नही माना एवं मन्दकषायी थे कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जाता। दहेज प्रथा पूर्व काल में नैतिकता की प्रादर्श व्यवस्थाएं पनपी। किन्तु काल की गति के परिधि में थी, किन्तु उसने प्राज जो रुप लेलिया साथ साथ मानव के स्वभाव में विविध कषायों का, है उसे नैतिक स्वीकार नहीं किया जा सकता। विभावों का, राग द्वेश मद मात्सर्य, इच्छाओं सामन्तवादी युग के अनेक प्राचार विचार आज अाकांक्षानों, कामनाओं, वासनाओं आदि का अनैतिक हो गए हैं। विदेशियों के शासन काल में प्राबल्य होता गया। फलतः द्वन्द्व एवं संघर्ष बढ़ते पराधीन भारतीयों के जो नैतिक मूल्य थे स्वतन्त्र गए और मनुष्य बहुधा मनुष्यत्व के प्रादर्श अल्प- भारत में उनमें अनेक बदल गए हैं। साथ ही, अधिक भ्रष्ट होता रहा। अजितादि महावीर विभिन्न क्षेत्रों में जो अनैतिकता एवं चारित्रिक तेईस तीर्थंकर प्रभुओं ने अपने अपने युग की आव- शिथिलता या चारित्रहीनता द्रुत वेग से घर करती श्यकताओं एवं परिस्थितियों के अनुसार व्यवहार जा रही है । वह चिंतनीय है। समयोचित सुधार या प्राचार-विचार के नियमों में संशोधन परिवर्तन न होने से समाज और पतनोन्मख ही होते जायेगा। किये। महावीरोपरान्त काल में अनेक स्व-पर . उपकारी दिग्गज प्राचार्यों ने समाज का मार्ग दर्शन एक चिन्तक ने कहा था कि हमें आज नैतिक किया और नैतिक मूल्यों के विषय में समयानुसार महामानवों और भौतिकताग्रस्त बौनों की जरुरत व्यवस्थाएं दी हैं। प्रबुद्ध सामाजिक नेताओं ने भी है, जबकि जिधर देखो भौतिकताग्रस्त दानवों की इस प्रक्रिया में योगदान दिया । और किसी भी बाढ़ है और नैतिकतापूर्ण बौने भी विरल ही दीख प्रगतिशील समाज के लिए यह प्रक्रिया सतत पड़ते हैं। वस्तुतः चरित्र एवं नैतिकता का चलती रहने वाली है, क्योंकि कोई प्रथा यदि सौ मूलाधार धर्म भाव है। जबकि नैतिकता विहीन या दो सौ वर्ष पूर्व नैतिक मान्य की जाती थी धर्म एक आडम्बर, ढोंग, पाखण्ड या अन्धविश्वास तो यह आवश्यक नहीं कि वह आज भी उतनी ही मात्र बनकर रह जाता है। धर्म विहीन नैतिकता नैतिक मान्य की जाय। किसी समय दास-दासी भी निराधार, अस्थिर ढुलमुल और व्यर्थ होकर प्रथा प्रचलित थी, अन्य जड़ सम्पत्ति की भांति रह जाती है। धर्म और नैतिकता का अटट क्रीत दास-दासी भी परिग्रह में सम्मिलित किए गठबन्धन है-एक के बिना दसरे का अस्तित्व जाते थे, किन्तु आज यह प्रथा सर्वथा अनैतिक है। नहीं और कहीं हो भी तो वह निरर्थक रहता है। किसी समय बहपत्नी वाद का इतना प्राबल्य था साथ ही, धर्म के क्षेत्र में सर्वाधिक आवश्यकता कि पुरुष दर्जनों नहीं, सैकड़ों विवाहित पत्नियां विवेक की है, विवेक शून्य धर्म धर्म नहीं होता। रख सकता था और नैतिक बना रह सकता था। चारित्रिक एवं नैतिक मूल्यों के परीक्षण एवं अाज एक समय में एक पत्नि अथवा एक पति से स्वीकरण या अस्वीकरण में विवेक ही सबसे बड़ी अधिक होना अनैतिक ही नहीं, राज्य द्वारा कसौटी है। किन परिस्थितियों में क्या कारणीय दण्डनीय अपराध भी है । किसी समय एक स्त्री है, क्या प्रकरणीय है, क्या आदेश है और क्या हेय एक पुरुष के साथ विवाह द्वारा जीवन भर के है, इस विषय में सन्तुलित एवं समत्वपूर्ण समीचीन
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