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महावीर का आह्वान
0 अनूपचन्द न्यायतीर्थ, जयपुर महावीर !
तुम्हारी अंतरात्मा ने तुम्हें ललकारा जब तुम इस वंसुधरा पर आये थे झकझोरा और कहा तुम्हें ध्यान है जगत का क्या हाल था ?
कि महलों को छोड़कर जंगल में प्रायो चारों ओर हिंसा का ताण्डव नृत्य
रागद्वेष की चिनमारियों से धर्म के नाम पर
झुलसते हुये प्राणी को बचासो पशु और नर बलियों का पातंक
क्योंकि तुम तो विश्व थाती थे । लूट खसोट का नंमा नांच
दूसरे ही क्षण पाखण्डी और ढोंगियों का कमाल था।
तुम्हारा विवेक जागृत हुआ रुढ़ि और अंधविश्वास
और सम्पूर्ण राज्य वैभव को छोड़ माया ओर प्रपंच का
जन परिजन से मुंह मोड़ इतना बोल बाला था।
संसार की असारता जान कि दानवता के प्रामे मानव बेहाल था। अपने आपको पहिचान सामाजिक दशा खराव थी
राजमहलों से उतरकर जंगल में प्रा गये। धनिक और दीन की खायी
तुमने शांति की खोज में ऊँच और नीच का जाति भेद
अपने आपको खो दिया नारी का अपमान और शोषण
राजकुमार से पूर्ण दिगम्बर बन एक मामूली गत थी।
कर्म शत्रुओं को हन भाई भाई में परस्पर वैर
सत्य और अहिंसा में समा गये घृणा और द्वेष की भावना
महावीर ! चोरी, अन्यायी और मिलावट
तुम अद्भुत स्वार्थी निकले उस युग की करामात थी ।
पहिले अपना कल्याण किया तुम कुंडलपुर के राजकुमार !
संयम और साधना के बल पर सिद्धार्थ के पुत्र ! त्रिशला के नन्दन !
अलौकिक दिव्य ज्ञान को पाया तथा महाराजा श्रेणिक के नाती थे । फिर सम्पूर्ण प्रदेश में बिहार कर
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