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मोह भंग
अद्वैत वेदान्त के समर्थ आचार्य शंकर दक्षिणापथ से उत्तरापथ की ओर बढ़ते हुए काशी पहुँचे। प्रातः गंगास्नान करके वापस लौट रहे थे कि मार्ग में एक मेहतर मिल गया। शंकर केरल के कर्मकांडी ब्राह्मण पुत्र थे। आत्मावत की उदघोषणा करते हुए भी दैहिक संस्कार प्रबल हो उठे। भृकुटि चढ़ाकर बोले-"चाण्डाल ! रास्ते से दूर हटो।"
मेहतर दंपती अलग हटने के बजाय शंकर के सामने आकर डट गये । ज्ञानी शंकराचार्य का धीरज टूट गया। उन्होंने तिरस्कार पूर्वक चाण्डाल को दुत्कारा तो वह मुक्तहास के साथ कहने लगा-'भगवन् ! आप दूर किसे हटाना चाहते हैं ? इस देह को, या देही को ?" शंकर भृकुटि से मेहतर की ओर देखने लगे। मेहतर ने धीरज से आगे कहा-'देह तो अन्न से पोषित होने के कारण अन्नमय कहा जाता है, तो एक अन्नमय देह दूसरे से भिन्न है क्या ? और इस देह में अधिष्ठित जीव द्रष्टा होने के कारण साक्षी कहलाता है, एक साक्षी क्या दूसरे साक्षी से भिन्न है ? फिर क्या आप अपने मिट्टी के शरीर को मेरे मिट्टी के शरीर से दूर रखना चाहते हैं, अथवा अपने समदर्शी आत्मा को मेरे समदर्शी आत्मा से भिन्न देखना चाहते हैं ? ज्ञान सागर का मंथन करके क्या आपने यही अद्वैत-अमृत प्राप्त किया है ?"
ज्ञानोद्दीप्त शंकराचार्य के मोह आवरण हट गए। दैहिक संस्कार छूटे और सहज शुद्ध आत्मा के दर्शन कर वे चाण्डाल का आलिंगन करने को आगे बढ़े।" .
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