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जीवन स्फूर्तियाँ
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में होते हैं, उसकी महानता स्वतः ही संसार में चमक उठती है जैसे पूर्व के अंचल पर दिवाकर !
नेपोलियन का अध्ययनकाल काफी गरीबी में गुजरा था । वह एक नाई के घर पर रहकर अध्ययन करता था । सुन्दरता और सुकुमारता ने उसके यौवन को आकर्षक और मोहक बना दिया था । नाई की स्त्री उस पर मुग्ध हो रही थी, और वह उसे अपनी ओर खींचने के अनेक प्रयत्न करने लगी। पर नेपोलियन की आँखें पुस्तक के सिवाय किसी चेहरे पर टिकतीही नहीं थीं ।
फ्रांस देश का सेनापति बनने के बाद नेपोलियन एक बार उसी स्थान पर गया । नाई की स्त्री दुकान पर बैठी थी । उसने पूछा - "तुम्हारे यहाँ बोनापार्ट नाम का एक युवक रहता था, कुछ स्मरण है तुम्हें ?"
स्त्री ने झुंझला कर कहा - "ओह ! बड़ा नीरस और बेदिल था वह ! मुंह भर मीठी बात तक करना नहीं सीखा था ! पुस्तक - पुस्तक और पुस्तक ; कीड़ा था वह पुस्तकों का । रहने दीजिए उसकी चर्चा भी । "
नेपोलियन मुस्कराया- "ठीक कहती हो देवि ! संयम ही मनुष्य को महान् बनाता है । बोनापार्ट तुम्हारी रसिकता में उलझ गया होता तो आज फ्रांस जैसे महान् देश का प्रधान सेनापति बनकर तुम्हारे सामने खड़ा नहीं हो सकता था ! "
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