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अपवित्र
क्षमा जैसी कोई पवित्र वस्तु नहीं है, और क्रोध जैसी दगी और कोई नहीं है। मनुष्य का अन्तःकरण जो रम पवित्र भगवमंदिर है, क्रोध से कलुषित होने पर मशान की भांति अपवित्र राक्षसों का क्रीड़ास्थल बन ता है।
कन्नड़ साहित्य में एक कथा प्रसिद्ध है। एक बार रामानन्द नाम के एक महान् विद्वान. शास्त्रार्थ को नकले ! अपनी अद्वितीय विद्वत्ता का प्रभाव जमाते हुए उन्होंने दूर-दूर तक के विद्वानों को शास्त्रार्थ में परास्त कर अपना शिष्य बनाया था। .
दिग्विजय के उल्लास में स्वयं को भूले हुए पंडित रामानंद एक बार कावेरी-तट पर भगवान-भास्कर को अर्ध्य चढ़ा रहे थे । संयोगवश तट पर कुछ ही दूर एक चमार चमड़ा धो रहा था। उसके छींटे रामानंद पर गेर गए।
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