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अपवित्र
२१३ ज्ञान गर्व-स्फीत आचार्य की आंखों में क्रोध की अग्नि भड़क उठी, क्रोधोन्मत्त वाणी में बोले- "अधम ! नीच ! नाश हो तेरा । मुझे अपवित्र कर दिया, फिर से स्नान करना पड़ेगा मुझे।" __सौम्य व्यंग्य के साथ चमार ने उत्तर दिया-"प्रभो ! अपराध क्षमा हो, स्नान तो मुझे करना पड़ेगा।"
आचार्य की मौन आँखें चमार को घूर रही थीं।
"चमड़े के छींटे से चमड़ा अपवित्र नहीं होता भगवन् । किंतु क्रोध जो अपवित्रों में भी अपवित्र है, उसके गंदे छींटे मुझ पर जो पड़े हैं,"-चमार की तत्त्वबोधिनी वाणी ने आचार्य रामानंद के ज्ञान गर्व को चूरचूर कर दिया। वे अपने ही अन्तःकरण की कलुष-कालिमा को धोने अब चुपचाप शांति के शीतल सरोवर में गहरे उतर कर विनत भाव से क्षमा मांग रहे थे-चमार के समक्ष !
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