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जीवन स्फूर्तियाँ वैदिक विद्वान् भी उनके चरणों में सश्रद्धा विनत हो गये थे।
उनकी तलस्पर्शी ज्ञान-गरिमा से प्रभावित हो गुजरात के वैदिक विद्वानों ने 'व्याख्यानवाचस्पति' के विरुद् से अलंकृत किया था। उपाध्याय जी के मन में अपने पांडित्य तथा प्रतिभा का सूक्ष्म अहंकार जगा । स्थान-स्थान पर प्राप्त वाद-विजय के प्रतीक में उन्होंने अपने आसन के चारों कोनों पर चार झंडियां लगाई थीं।
एक बार उपाध्याय यशोविजयजी देहली में आये। वहां एक वृद्ध महिला ने एक दिन सविनय पूछा"महाराज ! आपकी विश्वव्यापि ज्ञान-कीति से मेरा रोम-रोम गवित हो रहा है । मैं भी अपने मन की एक छोटी-सी शंका का समाधान चाहती हूँ।" ।
गुरुजी की स्वीकृति पाकर अत्यंत सरलता के साथ वृद्धा ने पूछा- “गुरुदेव ! आप जैसा ज्ञानी इस धरती पर और कोई हुआ है ? आचार्य भद्रबाहु, स्थूलिभद्र, हरिभद्र, सिद्धसेन क्या कोई आपकी तुलना में आ सकते हैं ?"
गुरु ने हंसकर कहा-"भोली बहन ! कहां वे, कहां मैं, उनके अगाध ज्ञान समुद्र में मैंने एक चिड़िया की चोंच भी नहीं भरी है ?"
-"महाराज ! क्या गौतमस्वामी और सुधर्मा
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