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विजयध्वज
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स्वामी भी आप जैसे विद्वान हुए हैं ?"-उसी भोलेपन के साथ वृद्धा ने गुरुजी को वंदना कर के पूछा ! ____ "बहन तुम कैसी बातें करती हो ? गौतमस्वामी का ज्ञान, सुधर्मास्वामी की विद्वत्ता सुमेरु के तुल्य है, तो मेरा ज्ञान एक छोटा-सा रजकण ! उनकी क्या समानता ?" ___ तो गुरुदेव ! आपके आसन पर चार विजयध्वज टंगे रहते हैं, तो गौतमस्वामी आदि के आसन पर कितने झंडे टंगे रहते होंगे सौ या हजार ?" वृद्धा की सरल वाणी में वह तीखापन था जो सीधा गुरुजी के ज्ञानवित हृदय को बींध गया।
वाचक यशोविजयजी के मन पर सहसा एक झटका लगा, ज्ञान गरिमा पर छाये अहं के आवरण सहसा टूट गए और साथ ही तत्क्षण उन्होंने अपने हाथों से आसन की झंडियां उखाड़ कर फेंक दी।
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