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सफलता का नुस्खा
संसार में कोई भी प्राणी क्षणभर के लिए भी अकर्मक्रिया शून्य नहीं रहता ।
- " नहिं कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । "
किंतु कर्म करके भी कुछ सफल होते हैं, और बहुत से असफलता की चक्की में ही पिसते रहते हैं !
जिसे अपने कर्म में, कर्तव्य में आनन्द एवं प्रसन्नता की अनुभूति होती है, और जो बिना किसी शोरगुल के चुपचाप अपना कर्तव्य पूर्ण किये जाता है— कार्य की सफलता उसके चरण चूमती है ।
कर्तव्य में यदि आनन्द न आये, तो वह भार हो जाता है और मनुष्य की आत्मा को दबा देता है ।
कर्म के साथ यदि वाचालता हो, तो मनुष्य की कार्यशक्ति का महत्वपूर्ण अंश व्यर्थ ही क्षीण हो जाता है ।
१ गीता ३।५
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