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दान और विनम्रता नम्रता-जीवन की परिपक्कदशा है, धन, बल, विद्या, जब तक पच नहीं जाते तब तक मनुष्य अहंकार के रोग से ग्रस्त होता है, किन्तु जब वे हजम हो जाते हैं तो वे ही मनुष्य को विनम्र बना देते हैं। महाकवि कालिदास ने कहा है
भवंति नम्रास्तरवः फलोद्गमै नवाम्बुभि भूरि विलम्बिनो घनाः । अनुद्धताः सत्पुरुषा समृद्विभिः
स्वभाव एवंष परोपकारिणाम् ।। फलों का नवीन मधुर भार पाकर वृक्ष नीचे झुक जाते हैं, मधुर जल से भरकर जलधर धरती पर झुक आते हैं, और धन-समृद्धि पाकर सत्पुरुष अधिक विनम्र और सरल हो जाते हैं-यह उनका परोपकार-परायण सहज स्वभाव है।
१ अभिज्ञान शाकुन्तल
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