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दया का असली रूप
दया का स्रोत जब हृदय में उमड़ता है तो ऊंचनीच, मनुष्य और पशु की सीमाओं को तोड़कर चैतन्य मात्र को उसके अमृत रस से आप्लावित कर देता है।
वस्तुतः दया की धारा दूसरे का दुःख दूर करने के लिए नहीं, अपितु अपना ही दुःख दूर करने के लिए हृदय से उत्स्यंदित होती है। आचार्य जिनभद्रगणि ने दया और अनुकंपा की यही मौलिक परिभाषा की है"जो दूसरे के दुःख व कष्ट रूप ताप से स्वयं तप्त हो उठे वही दयावान है। दूसरों को पीड़ा से कांपते देखकर जिसका हृदय कांप उठे-यही तो अनुकंपा है"--
जो उ परं कंपंतं दहण न कंपए कढिणभावो एसो उ निरणुकंपो, अणु पच्छा भावजोएणं ।'
१ बृह० भाष्य १३१६।१३२०
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