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आत्म-स्मृति अद्वैत ब्रह्म के समुपासक प्रज्ञा-पुरुष शंकराचार्य ने आत्मा के अखंड-अनन्त रूप को उद्बोधित करते हुए कहा है
देश-काल-विषयातिवति यद्,
ब्रह्म तत्वमसि भावयमात्मनि !' "तू देश काल और स्थिति परिस्थिति के विषय व बंधन से अतीत परमब्रह्म स्वरूप है," अन्तःकरण में इस भावना को जागृत कर।
आरण्यक में आत्मज्योति का दर्शन कराने वाला एक सूक्त है
योऽहमस्मि, ब्रह्मास्मि,
अहमेवाहं, मां जुहोमि । --"जो मैं जीव हूँ, शुद्ध हो जाने पर वही ब्रह्म हो जाता हूँ। इसलिए 'मैं ही 'मैं' हूँ। मैं अपनी ही उपासना करता हूँ।
१. विवेकचूड़ामणि २५५
२. तैत्तिरीय आ० १०।१
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