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दृष्टि जैसी सृष्टि मन, मानव सृष्टि का मूल है।
मनुष्य का मन जब राग युक्त होता है तो सर्वत्र राग और प्रेम का बन्धन फैलता चला जाता है, वही जब विरक्ति की ओर मुड़ता है तो, बन्धनों की ग्रन्थियां स्वतः खुल पड़ती हैं आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में
। रत्तो बंदधि कम्म,
| मुच्चदि जीवो विराग संजुत्तो।' रागासक्त मन कर्म के बंधन गढ़ लेता है, और विरक्त मन उन बन्धनों से मुक्त हो जाता है !
इसीलिए भाष्यकार उव्वट ने मन को महासागर कहा है-जिसमें अच्छाइयों की मणि-मुक्ताएँ भरी हैं तो बुराइयों के मच्छ-कच्छ भी। 'मनो वै सरस्वान्'२-मन ही महासागर है।
१ समयसार
२. यजुर्वेदीय उब्वट भाष्य १३।३५
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