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१६६ होतो है, वही वाणी आनंद की स्रोतस्विनी है उसी में
आत्मा का निश्छलनाद प्रतिध्वनित होता है जो दिगदिगन्त को रसपूरित कर देता है ।
जिस वाणी में कामना है, आत्मा की प्रसन्नता की उपेक्षा कर पर की प्रसन्नता की आकांक्षा है, वह वाणी चाहे जितनी संगीत की मधुरिमा लिए हो, चाहे जैसे काव्य चमत्कार से युक्त हो, उस अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति नहीं करा सकती। .एक बार सम्राट अकबर ने तानसेन के गुरु स्वामी हरिदास जी का संगीत सुनने की अभिलाषा प्रकट की ! स्वामी हरिदास कहीं राज दरबार में जाते-आते नहीं थे, किसी को प्रसन्न करने के लिए कहने पर गाते नहीं थे। वे तो जब अन्तर में आनंद की हिलोर उठती तो जहां कही बैठे प्रभुभक्ति के स्वरों में मधु घोलने लग जाते । तानसेन स्वामी जी की आनंद विभोर अवस्था में एक बार अकबर को उनके चरणों में ले गये । उनकी आनन्द वर्षिणी स्वर झंकृतियों से अकबर का अन्तःकरण झूम उठा । प्रभु भक्ति के आनंद से हृदय का कण-कण आप्लावित हो उठा।
उन आनन्दमय क्षणों की याद करके एक बार अकबर ने तानसेन से कहा-"तानसेन, तुम भी तो बहुत सुन्दर गाते हो, तुम्हारे स्वरों में भी अद्भुत मिठास है, किंतु जिस आनन्द की मधुर अनुभूति तुम्हारे गुरु के संगीत में
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