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अनुश्रुत श्रुतियाँ
व्यंग्य करती है तो वह भीतर ही भीतर आत्मग्लानि से टूटता हुआ अपने पर पश्चात्ताप करता है ।
भारतीय राजनीति एवं धर्म-दर्शन के साहित्य शिल्पी राजगोपालाचारी ने एक प्राचीन कथा उट्टंकित करते हुए इसी भाव का स्पष्ट निदर्शन किया है, जो आज की आत्म-वंचक लोक-मनोवृत्ति का यथार्थ दर्शन है-
एक सम्राट ने बूढ़े राजशिल्पी को आदेश दिया"नदी के तट पर एक ऐसा भवन बनाओ जो सौन्दर्य एवं सुविधा की दृष्टि से अद्वितीय हो ।'
"
राजा के आदेश से राज शिल्पी ने भवन निर्माण की योजना बनाई, और राजा ने तत्काल संभावित धनराशि शिल्पी को देने की आज्ञा कर दी !
अपार धन राशि देखकर शिल्पी का मन चंचल हो उठा - "क्यों न, नकली और घटिया सामान लगाकर भवन खड़ा कर दूं और शेषराशि अपने पास ही बचालू ?" शिल्पी की आंखों पर लोभ का आवरण पड़
गया ।
कुछ ही दिनों में सुन्दर भवन बनकर तैयार होगया । एक विशाल समारोह के साथ उसका उद्घाटन हुआ । कृतज्ञता पूर्ण भंगिमा के साथ महाराज ने कहा- "आज के दिन मैं राजशिल्पी की एकनिष्ठ कर्तव्य परायणता और राजभक्ति को पुरस्कृत करना चाहता हूँ । राज्य का यह सबसे सुंदर एवं सुखद भवन मैं राजशिल्पी को
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