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अस्तेय की सीमाएँ
अचौर्य व्रत के लिए दो शब्दों का प्रयोग होता हैअस्तेय एवं अदत्तवर्जन ।
अस्तेय-यह व्रत की सामाजिक एवं नैतिक मर्यादा है । चोरी व अपहरण नहीं करना-यह व्रत का सामाजिक आदर्श है । इसकी परिभाषा यहां तक पहुंच गई है"यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम् । अधिक योभिऽमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति ॥"
मनुष्य का अधिकार केवल उतने ही धन पर है, जितने से वह स्वयं का पेट भर सके, अपनी भूख मिटा सके । इससे अधिक संपत्ति को जो अपनी मानता है, उस पर अपना अधिकार जमाता है, वह चोर है उसे दण्ड मिलना चाहिए।' सामाजिक क्षेत्र में यह अस्तेय की सूक्ष्म मर्यादा है।
१-श्रीमद् भागवत ७।१४।८
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