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अमरज्योति
भगवान महावीर ने एक बार कहा"किमत्थि उवाही पासगस्स ? न विज्जइ ?'
जिसने सत्य का साक्षात् दर्शन कर लिया है, उस वीतराग द्रष्टा को कोई बंधन, भय व उपाधि है ?
नहीं ! उसके लिए संसार की समस्त उपाधियां, समाधि के साधन बन जाती हैं । उसका मन कमल के समान बन जाता है-"पद्मपत्रइवाम्भसा"-२ कमल पानी से निर्लिप्त रहता है, वैसे ही सत्य का अनुभव करने वाले साधक का मन विषय विकारों के सघन जल में प्रविष्ट होकर भी निलिप्त, निविकार निकल आता है।
उस सत्य ज्योति का द्रष्टा साधक स्वयं ही अपने पथ को ज्योतित नहीं करता, किंतु अपने सुदूर परिपाश्वों
१.
आचारांग १।३।४,
२. गीता
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