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झूठी बड़ाई
८५ झूठी आत्म-स्तुति से परलोक तो नष्ट होता ही है, किन्तु यह जीवन भी किस प्रकार उद्वेगमय एवं जुगुप्सित हो जाता है, इसका निदर्शन एक जातक कथा में मिलता है।
एक दिन वाराणसी में महोत्सव मनाया जा रहा था। नगर में चारों ओर स्वच्छता, सुन्दरता और अद्भुत साज-सज्जा की गई। महोत्सव की रमणीयता से आकृष्ट होकर चार देवपुत्र ककारु नामक दिव्यपुष्पों की माला पहन कर आकाश में स्थित हो महोत्सव देखने आये । बारह योजन का विराट नगर उनके दिव्य पूष्पहारों की मधुर गंध से महक उठा । राजा ब्रह्मदत्त अपने अमात्यों व समस्त राजपरिवार तथा नगरसेठिठओं के साथ उनके दर्शन करने आया।
लोगों ने देवपुत्रों से प्रार्थना की-"आप तो पुनः दिव्यलोक में लौट जायेगें और वहां ऐसी अगणित दिव्यमालाए प्राप्त हैं, हम मनुष्यों को ऐसी दिव्य माला दुर्लभ हैं, अतः कृपाकर ये मालाए हमें देदें।"
देव पुत्रों ने कहा-"मनुष्य लोक में रहने वाले दुष्ट, मूर्ख एवं तुच्छ मनुष्य इन्हें धारण नहीं कर सकते, कोई सत्पुरुष ही इन्हें ग्रहण कर सकता है।" ज्येष्ठ देव पुत्र ने कहा - कायेन यो नावहरे, वाचाय न मुसाभणे । यसो लद्धा न मज्जेय्य स वे कक्कारुमरहति ॥ -जो काया से किसी की कोई वस्तु नहीं चुराता, ।
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