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अपने आइने में
आँखों पर जब अहंकार का रंगीन चश्मा चढ़ जाता तो मनुष्य सर्वत्र अपने चश्मे जैसा रंग ही देखता है । उसे लगता है, सब सृष्टि उसी के रंग में रंगी है, वह न हो, तो सृष्टि के यंत्र ढीले पड़ जायेंगे ।
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अहंकार की चरम सीमा तो इससे भी आगे है, जहाँ उसे बड़े-बड़े भूखंड एक घरोंदे के समान प्रतीत होते हैं और अपना छोटा-सा घरोंदा विशाल उपवन से भी अधिक रमणीय ! मनुष्य की इस आत्म वंचना की व्याख्या करके उसे जागरूक करने वाले युग द्रष्टा महावीर ने कहा है"अन्नं जणं पस्सति बिंबभूयं ' - अज्ञानी अहंकार में दीप्त होकर अन्य महान्तम विभूतियों को भी एक बिम्बपरछाई मात्र देखने लगता है । पर कोई उसे आत्म-ज्ञान के दर्पण में जब अपनी लघुतम परछाई दिखाए तो... तो उसकी वाणी निरुत्तर हो जाती है, प्रज्ञा स्तब्ध रह जाती है ।
सूत्रकृतांग १।१३।८
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