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निर्माता और विजेता दार्शनिक चिन्तन के मूल ध्रव हैं - सत असत ! राजनीतिक चिन्तन की धुरा है-निर्माण और विजय !
कभी-कभी चिन्तन की गहराई मैं उतरता हूं तो लगता है- जीवन और जगत के ये ही दो पहलू हैं-सत का निर्माण और असत् पर विजय ! शुभ का निर्माण और अशुभ का संहार । यही जीवन का क्रम है। यही संसार के इतिहास की आवृत्ति है। किंतु कभी-कभी यह क्रम विपरीत हो जाता है। तब निर्माण श्रमनिष्ठा का प्रतीक होता है, विजय-विध्वंस का सूचक !
विजय- उतनी कठिन नहीं है, जितना कठिन निर्माण है। विजय से अधिक निर्माण का गौरव है। जीवन में निर्माण की कल्पना अधिक भव्य एवं उपयोगी है, विजय की कल्पना-उतनी रम्य एवं उपयोगी नहीं है। निर्माण के साथ आनन्द की किलकारी है तो विजय के पीछे रुदन की प्रतिध्वनि भी छिपी है।
एक दार्शनिक के दो पुत्र थे। एक बार छोटा पुत्र उसके सामने बैठा लकड़ी का महल बना रहा था और बड़ा पुत्र इतिहास की पुस्तक खोले बड़े ध्यान से पढ़ रहा
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