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अनुश्रुत श्रुतियां
रहा । दैत्य अपना रूप फैलाता रहा, दिशाओं को हाथों से छूने लगा । बलदेव उसके विकराल रूप से सिहर उठे । तभी पहर बीत गया । दैत्य पुनः सिमट कर छुईमुई हो गया ।
श्री कृष्ण जगे । सात्यकि और बलदेव दर्द से कराहते हुए नींद में घरेर रहे थे ।
ऐ क्षुद्र मानव ! अपना भला चाहता है तो इन दोनों को छोड़कर भागजा । "ही....ही...ही...." दैत्य के क्रूर अहट्टास से वन- प्रान्तर कांपकांप उठे ।
"तुम अच्छे आये मित्र ! आओ, मजे से रात कटेगी, मित्रों के साथ कुश्ती लड़ने का आनन्द ही दूसरा है, आओ ! आओ ।" श्री कृष्ण ने मधुर हास्य के साथ पुकारा ।
दैत्य क्रोध में पागल हो उठा । दुगुने वेग से वह श्री कृष्ण पर झपटा । पर श्री कृष्ण तो उसे यों खिलाने लगे जैसे कुशल पहलवान नौसिखिये पहलवान के साथ कुश्ती खेलकर उसे दांव फेंकना सिखा रहा हो। वह क्रोध में उछलता, तो कृष्ण एक ओर दुबक जाते, वह दांत पीसता, तो श्री कृष्ण हंसने लगते, वह गिर पड़ता तो श्री कृष्ण उसको प्रोत्साहित करने लगते । दैत्य अपने आप हारने लगा, उसका बल क्षीण होता गया, घटतेघटते उसका आकार एक छोटे कीड़े जितना रह गया । श्री कृष्ण ने उसे पकड़कर दुपट्टे के छोर से बांध
लिया ।
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