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में भी निवास है। छल-कपट रूप प्रवृत्ति करने से एवं
आतै ध्यान के कारण जीव तिर्यचगति में उत्पन्न होते हैं। ८६. प्रश्न : मनुष्यगति का स्वरूप क्या है ? उत्तर : जो नित्य ही हेय-उपादेय, तत्त्व-अतत्त्व, आप्त-अनाप्त,
धर्म-अधर्म आदि का विचार कर सके, जो मन के द्वारा गुणदोषादि का विचार एवं स्मरण आदि कर सकें, जो मन के विषय में उत्कृष्ट हों, शिल्पकला आदि में कुशल हों, तपश्चरण कर मोक्ष प्राप्त कर सकें तथा युग की आदि में जो मनुष्यों से उत्पन्न हों उन्हें मनुष्य कहते हैं और उनकी गति को मनुष्यगति कहते हैं। मनुष्यों का निवास ढाई द्वीप में है। मनुष्य के आर्य-खण्डज और म्लेच्छ-खण्डज की अपेक्षा दो भेद हैं। अल्प आरम्भ, अल्प परिग्रह तथा स्वभाव की सरलता से जीव मनुष्य गति में उत्पन्न होते
हैं।
१७. प्रश्न : देवगति का स्वरूप क्या है ? उत्तर :जो अणिमा, महिमा आदि आठ ऋद्धियों के द्वारा नाना
द्वीप-समुद्रों में इच्छानुसार क्रीड़ा करते हैं और जिनका रूप, लावण्य, यौवन आदि सदा प्रकाशमान रहता है, उन्हें देव कहते हैं और उनकी गति को देवगति कहते हैं। इनके