Book Title: Karananuyoga Part 1
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 149
________________ के भेद को तथा मनुष्यों के भावों के भेद को कहता है, जो जिनागम के प्राणों के समान है, विद्वानों के ध्यान का पात्र है तथा जो तपस्वी मुनियों के लिये प्रिय है, वह करणानुयोग कहलाता है। जिसमें लोक, जगत्प्रतर, जगच्छेणी, द्वीप, समुद्र, पर्वत आदि के विस्तार को निकालने के लिए करणसूत्रों-गणितसूत्रों का कथन होता है, उसे कारणानुयोग कहते हैं। इसी प्रकार जिसमें गुणस्थान, मार्गणा, जीवसमास आदि के आश्रयभूत कारणों-जीव के परिणाम विशेषों का वर्णन होता है, उसे भी करणानुयोग कहते हैं। कर्मों के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से सम्बन्ध रखने वाली चर्चा भी इसी अनुयोग में होती है। ग्रन्थ : तिलोयपण्णत्ती, त्रिलोकसार, जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, षट्खण्डागम, धवलाटीका, जयधवला टीका, महाधवला, कसायपाहुडसुत्त, सिद्धान्त-सारसंग्रह, राजवार्तिक, जम्बुद्धीप प्रज्ञप्ति, गणितसारसंग्रह, लोकविभाग, लब्धिसार-क्षपणासार आदि / / / समाप्त / / (144)

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