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हाथ-पैर चलाने की), उपदेश और आलाप (श्लोक आदि के पाठ) को मन के अवलम्बन से ग्रहण करता है उसे संज्ञी कहते हैं। जिन जीवों में लब्धि या उपयोग रूप मन नहीं पाया जाता है, उन्हें असंत्री कहते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक के जीव नियम से असंज्ञी ही होते हैं। पंचेन्द्रिय संज्ञी-असंज्ञी दोनों प्रकार के होते हैं। नरक, मनुष्य और देवगति में सब जीव संज्ञी ही होते हैं, परन्तु तिथंच गति में संज्ञी-असंज्ञी दोनों होते हैं। असंज्ञी जीव के मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है और संडी जीव के मिथ्यात्व से लेकर बारह गुणस्थान तक होते है। तेरहवें आदि गुणस्थानवी जीव न संज्ञी हैं, न असंज्ञी
हैं, किन्तु उभय व्यपदेश से रहित हैं। २५५. प्रश्न : आहारक मार्गणा के कितने भेद होते हैं ? उत्तर : आहारक मार्गणा के दो भेद हैं- (१) आहारक और (२)
अनाहारक। २५६. प्रश्न : आहारक किसे कहते हैं ? उत्तर : औदारिकादि तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य
पुदगल वर्गणा को आहार कहते हैं। उसे जो ग्रहण करता है, वह आहारक कहलाता है।
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