Book Title: Karananuyoga Part 1
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 134
________________ २४८. प्रश्न : औपशमिक सम्यग्दर्शन के कितने भेद हैं ? उनका स्वरूप क्या है ? उत्तर : औपशमिक सम्यग्दर्शन के दो भेद हैं- (१) प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन और (२) द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन । प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन ५ अथवा ७ प्रकृतियों के उपशम से मिथ्यादृष्टि जीव को होता है। प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक होता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व के काल में किसी का मरण नहीं होता है। दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों के उपशम के साथ-साथ चार अनन्तानुबन्धी कषायों के विसंयोजन (अनन्तानुबन्धी का अप्रत्याख्यानादि रूप परिणमन होना) से द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन होता है। द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन श्रेणी चढ़ने के सम्मुख जीव के सातवें गुणस्थान में उत्पन्न होता है एवं क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन के पश्चात् उत्पन्न होता है। श्रेणी का आरोहण करके जब जीव ग्यारहवें गुणस्थान से नीचे गिरता है तब छठे, पाँचवें एवं चौथे गुणस्थान में भी पाया जाता है। इस अपेक्षा द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन चतुर्थ गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान पर्यन्त पाया जाता है। द्वितीयोपशम सम्यक्त्व सहित उपशम श्रेणी पर चढ़ने (१२९)

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