Book Title: Karananuyoga Part 1
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 93
________________ चिन्तन किया जायेगा) अथवा अर्धचिन्तित (वर्तमान में जिसका चिन्तन किया जा रहा है) रूपी पदार्थ को स्पष्ट जानता है उसे मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान मनुष्यलोक में अर्थात अढ़ाई द्वीप में मुनियों को ही होता है। १६६. प्रश्न : मनःपर्ययज्ञान के कितने भेद हैं ? उत्तर : मनःपर्ययज्ञान के दो भेद हैं- (१) ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान और (२) विपुलमति मनःपर्ययज्ञान । जो सरल मन, वचन, काय के द्वारा किये हुए दूसरे के मन में स्थित रूपी पदार्थ को जानता है उसे ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। जो सरल तथा कुटिल रूप से किये हुए दूसरे के मन में स्थित रूपी पदार्थ को जानता है उसे विपुलमति मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। दूसरे के पूछने पर और नहीं पूछने पर भी उसके मनःस्थित कषाय को जानता है। १७०. प्रश्न : मनःपर्ययज्ञान कहाँ से उत्पन्न होता है और उसका स्वामी कौन है ? उत्तर : जहाँ पर द्रव्यमन होता है, उस स्थान पर आत्मा के जो प्रदेश हैं, वहाँ से मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न होता है। प्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यन्त सात गुणस्थानों में से किसी एक

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