Book Title: Karananuyoga Part 1
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 82
________________ १५२. प्रश्न : पर्यायज्ञान का क्या स्वरूप है ? उनके स्वामी कौन हैं ? उत्तर : सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के एक अन्तर्मुहूर्त में अधिक से अधिक ६०१२ भव सम्भव हैं। उनमें भ्रमण करके अन्त के अपर्याप्त शरीर को तीन मोड़ों के द्वारा ग्रहण करने वाले जीव के प्रथम मोड़ा के समय में स्पर्शन इन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक लब्ध्यक्षररूप सबसे जघन्य ज्ञान होता है, उसको पर्यायज्ञान कहते हैं। इसमें विशेषता केवल यही है कि इसके आवरण करने वाले कर्म के उदय का फल इस पर्यायज्ञान में नहीं होता क्योंकि यदि पर्यायावरण कर्म का फल पर्यायज्ञान हो जाय तो ज्ञानोपयोग का अभाव होने से जीव का भी अभाव हो जाता है परन्तु कम-से-कम पर्यायरूप ज्ञान जीव के अवश्य पाया जाता है। इससे यह ज्ञान निरावरण होता है क्योंकि इसे घातने वाले पर्याय नामक श्रुतज्ञानावरण का प्रभाव पर्यायसमास ज्ञान पर पड़ता है, पर्याय नामक ज्ञान पर नहीं पड़ता है। १५३. प्रश्न : अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के कितने भेद हैं ? उत्तर : अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के दो भेद हैं- (१) अंगप्रविष्ट और (२) अंगबाह्य । अंगप्रविष्ट के बारह भेद है- (१) आचारांग, (७७)

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