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रहता है। यह विशेष है कि उस पर्याप्तक जीव के कभी
मनोयोग भी होता है, कभी बचनयोग भी होता है। ११३. प्रश्न : वैक्रियिकमिश्र काययोग किसे कहते हैं ? उत्तर : विग्रहगति के बाद देवगति और नरक गति में अपर्याप्त
अवस्था के अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त कार्मण शरीर और वैक्रियिक शरीर के निमित्त से आत्मप्रदेशों का जो परिस्पन्दन होता
है उसे वैक्रियिकमिश्र काययोग कहते हैं। ११४. प्रश्न : वैक्रियिक काययोग किसे कहते हैं ? उत्तर : पर्याप्त अवस्था में वैक्रियिक शरीर के निमित्त से
आत्मप्रदेशों में जो परिस्पन्दन होता है उसे चैक्रियिक काययोग कहते हैं। देव और नारकियों के पूरे जीवन भर चैक्रियिक काययोग रहता है। कभी-कभी वचनयोग और
मनोयोग भी होता है। ११५. प्रश्न : आहारकमिश्र काययोग किसे कहते हैं ?
उत्तर : छठे गुणस्थानवर्ती जिन मुनियों के असंयम का परिहार
करने के लिए और सन्देह-निवारण हेतु मस्तक से जो श्वेत रंग का पुतला निकलने वाला है, उनके प्रथम