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कार्य क्षेत्र रहा है । अतः मैंने उनके पुण्य स्मारक निमित्त उक्त स्मृति मन्दिर का निर्माण कराया है। मेरी कल्पना इस स्मृति मन्दिर के बारे में बहुत बड़ी थी परन्तु समाज के अन्य जनों का वैसा कोई सहयोग मैं प्राप्त नहीं कर सका अतः किसी तरह इस स्थान का यथा-तथा निर्माण कार्य पूर्ण होकर इसमें विराजमान करने के लिये जो सुन्दर मूर्ति मैंने तैयार करवाई है उसे अब प्रतिष्ठित कर देना ही मेरे जीवन का अन्तिम कार्य है।
कुछ श्रद्धालु और ज्ञानप्रिय जैन बन्धु इस कार्य में रस ले रहे हैं और वे यथा शक्य इस पावन स्मारक को सुप्रतिष्ठित करने का प्रशंसनीय कार्य कर रहे हैं। आशा है शीघ्र ही मैं इसको सम्पन्न हुआ देख सकूँगा।
मेरे जीवन का यह ८४ वां वर्ष चल रहा है, प्रस्तुत कहानी तो जीवन के प्रारम्भ के बाल्यकाल के केवल १५ वर्षों के संस्मरण कह रही है जीवन का विशेष कार्यकाल तो उसके बाद ही प्रारम्भ होता है। जिसका किंचित् मात्र दिग्दर्शन मैंने ऊपर अंकित किया है । इस कहानी के लिखने का प्रारंभ तीन वर्ष पूर्व हुआ था, परंतु यह व्यवस्थित रुप से आगे बढ़ नहीं सका। ज्यों त्यों करके इस भूमिका रूप भाग का आलेखन पूरा हुआ तो कुछ सज्जनों का सुझाव रहा कि जितना अंश लिखा जा चुका है उसको तो छपा कर प्रकट कर देना चाहिये । इस सुझावानुसार यह अंश प्रेस में दे दिया गया। इसके लिये पण्डित श्री रमेशचन्द्र जी अोझा शाहपुरा निवासी ने अजमेर जाकर प्रेस वगैरह की व्यवस्था करने का प्रयास किया। मेरी आँखे अब ज्योतिक्षीण हो गई
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