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करना चाहता हूँ कि वर्ष १९९२ में माणक सा. रतलाम आए। मैं उनके साथ स्टेशन गया। छोटा शहर है अच्छी जान पहचान है अत: मेने रौब डालने के लिये कहा फुफासा प्लेटफॉर्म टिकट लेने की कोई जरुरत नहीं है यहाँ सभी मुझे जानते है जब की उस वक्त प्लेटफॉर्म टिकट ५० पैसै का आता था उन्होने कुछ नहीं कहा। बस कहा प्लेटफॉर्म टिकट खरीदो। फिर घर आकर समझाया कि हम ५० पैसै की चोरी कर रहे है और उफर से रौब गाँठ रहे है और इसे अपनी होशियारी समझ रहे है। यह चोरी है ऐसा कभी मत करना, उनकी वह बात मेरे जीवन का एक टर्निंग पाईन्ट था। उनकी छोटी सी बात ने इतना बड़ा संदेश दिया कि आज भी जब भी कहीं पार्किंग, प्लेटफॉर्म इत्यादि का शुल्क चुकाता हुँ तो अचानक उनकी याद आ जाती है। चरित्र निर्माण में उनकी इसी तरह की छोटी छोटी सी बातो ने मेरा जीवन का तरीका ही बदल दिया।
माणक सा. का अल्पायु (५२ वर्ष में) ०५/फरवरी/२००१ में निधन हो गया। जब उनका निधन हुआ उसके पूर्व उन्हे १३ दिन तक बॉम्बे हॉस्पीटल में इलाज के लिये भर्ती रखा गया था तब वहाँ पर प्रतिदिन मुंबई जैसे शहर में जहाँ किसी के पास किसी के लिये समय नहीं है उनके लिये रोज शाम एवं सुबह मिलने को करीबन २०० आदमी नीचे बैठे रहते थे। हम उन्हे समझाते थे फिर भी लोग घर नहीं जाते थे। वहीं बैठे रहते थे। पहले मैं यह समझता था कि माणक सा. सिर्फ मेरे है व मैं ही उनके सबसे करीब हूँ और उनकी जिन्दगी में भी ऐसा ही है, परन्तु मेरा यह भी भर्म टुट गया जब उनके निधन के पश्चात् सेकडो लोगो से मैं मिला जो यही कह रहे थे कि वो तो सिर्फ उनके थे। उनके सबके जीवन मे सबसे प्रिय, सबसे नजदीकी व्यक्ति अगर कोई था तो वे श्री माणक सा. थे।
यद्यपि माणक सा. आज वो हमारे बीच नहीं है परन्तु उनके बताए मार्ग पर हम सभी उनकी यादों के सहारे आगे बढ़ रहे है। ये सभी यादें चिरस्मरणीय रह कर पग-पग पर हमारा मार्गदर्शन करती रहेगी। उनकी धर्मपत्नी लता जी मेरी भुआ है। धर्म के मार्ग पर बहुत आगे बढ गई, उदारता उनके रोम-रोम में बसी हुई है। उनका पुत्र आकाश सच मे यथा नाम तथा गुण आकाश की तरह पुरे परिवार को साथ लेकर आगे बढ रहा
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