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१६ | चरणानुयोग प्रस्तावना
सम्यग्दर्शन, सम्यग्जान और सम्मारिका पूर्वापर हा उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट कहा गया कि कुछ विचारक मानते सम्बन्ध भी ऐकान्तिक नहीं जैन विचारणा के अनुसार साधन हैं कि पाप का त्याग किए बिना ही मात्र आयंतत्व ( यथार्थता ) जय में एक क्रम तो माना गया है यद्यपि इस क्रम को भी ऐका को जानकर ही आत्मा सभी दुःखों से छूट जाती है - लेकिन न्तिक रूप में स्वीकार करना उसकी स्याद्वाद की धारणा का बन्धन और मुक्ति के सिद्धांत में विश्वास करने वाले ये विचारकः अतिक्रमण ही होगा | क्योंकि जहाँ आवरण के सम्यक होने के संयय का आचरण नहीं करते हुए केवल वचनों से ही आत्मा को लिए सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन आवश्यक हैं यहीं दूसरी ओर आश्वासन देते हैं ।" सूत्रकृतांग में कहा है कि मनुष्य चाहे वह सम्यग्ज्ञान एवं दर्शन की उपलब्धि के पूर्व भी आधरण का सम्यक् ब्राह्मण हो, भिक्षुक हो, अनेक शास्त्रों का जानकार हो अथवा होना आवश्यक है। जैनदर्शन के अनुसार जब तक तीव्रतम अपने को धार्मिक प्रकट करता हो यदि उसका आचरण अच्छा ( अनन्तानुबन्धी) क्रोध, मान, माया और लोभ चार कषायें नहीं है तो यह अपने कर्मों के कारण दुःखी ही होगा " अनेक समाप्त नहीं होतीं, तब तक सभ्यक्-दर्शन और ज्ञान भी प्राप्त भाषाओं एवं शास्त्रों का ज्ञान आत्म को शरणभूत नहीं होता । नहीं होता। आचार्य शंकर ने भी ज्ञान की शान्ति के पूर्व वैराग्यमयादि विद्या भी उसे बचा सकती है ? अस आचरण में का होना आवश्यक माना है। इस प्रकार सदाचरण और संयम के दर्शन और ज्ञान की उनके भी सिद्ध होते हैं। दूसरे, इस क्रम या पूर्वागरता के आधार पर भी साधन में किसी एक को श्रेष्ठ मानता और दूसरे को गौण मानना जैन दर्शन को स्वीकृत नहीं है। वस्तुत: साधन त्रय मान atanना के तीन पक्षों के रूप में ही साधना मार्ग का निर्माण करते हैं । धार्मिक चेतना के इन तीन पक्षों में जैसी पारस्परिक प्रभावकता और अवियोज्य सम्बन्ध रहा है, वैसी ही पारस्परिक प्रभात्रता और अविशेष सम्बन्ध मानवीय वनों पक्षों में है। ज्ञान और फिया के सहयोग से मुक्ति
साधना मार्च में ज्ञान और किया (विहित आवरण) के सेठ को लेकर विवाद पता आ रहा है। वैदिक युग में जहाँ रिकी प्रधानता रही है यहाँ दोपनिपदिक युग में ज्ञान पर बल दिया जाने लगा। भारतीय चिन्तकों के समक्ष प्राचीन समय से ही यह समस्या रही है कि ज्ञान और किया के बीच साधना का यथार्थ तत्व क्या है ? जैन परम्परा ने प्रारम्भ से ही साधना मार्ग में ज्ञान और क्रिया का समन्वय किया है। पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती युग में जब श्रमण परम्परा देहदण्डन- परक तप साधना में और वैदिक परम्परा यज्ञयागपरक क्रिया काण्डों में ही साधना की इतिश्री मानकर साधना के मात्र आचरणात्मक पक्ष पर बल देने लगी थी, तो उन्होंने उसे ज्ञान से समन्वित करने का प्रयास किया था। महावीर और उनके बाद जैन- विचारकों ने भी ज्ञान और आचरण दोनों से समन्वित साधनान्यथ का उपदेश दिया। जैन-विचारकों का यह स्पष्ट निर्देश था कि मुक्ति न तो मात्र ज्ञान से प्राप्त हो सकती है और न केवल सदाचरण से । . ज्ञानमार्गी औपनिषदिक एवं सांख्य परम्पराओं की समीक्षा करते
अनुरक्त अपने आप को पण्डित मानने वाले लोग वस्तुतः मूर्ख है ति में ज्ञान और चारिज के पारस्परिक सम्बन्ध का विवेचन विस्तृत रूप में है। उसके कुछ अंश इस समस्या का हल खोजने में हमारे सहायक हो सकेंगे। नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि "आचरणविहीन अनेक शास्त्रों के ज्ञाता भी संसार समुद्र से पार नहीं होते । मात्र शास्त्रीय ज्ञान से बिना आचरण के कोई मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। जिस प्रकार निपुण मालक भी वायु या गति की क्रिया के अभाव में जहाज को इच्छित किनारे पर नहीं पहुँचा सकता वैसे ही ज्ञानी आत्मा भी तप संयम रूप सदाचरण के अभाव में मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता मात्र जान देने से कार्य सिद्धि नहीं होती । तैरना जानते हुए भी कोई कष्ट नहीं करे जो दूब जाता है। वैसे ही शास्त्रों को जानते हुए भी जो धर्म का आवरण नहीं करता, वह डूब जाता है।" जसे चन्दन ढोने वाला चन्दन से लाभान्वित नहीं होता, मात्र भार वाहक ही बना रहता है वैसे ही आवरण से हीन जानी ज्ञान के भार का वाहक मात्र है। इससे उसे कोई लाभ नहीं होता। ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक सम्बन्ध को लोक-प्रसिद्ध अंध- पंगु न्याय के आधार पर स्पष्ट करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जैसे वन में दावानल लगने पर पंगु उसे देखते हुए भी गति के अभाव में जल मरता है और अन्धा सम्यग् मार्ग न खोज पाने के कारण जल मरता है वैसे ही माचरणविहीत ज्ञान पंगु के समान है और ज्ञान चक्षु विहीन आचरण अन्धे के समान है। आचरणविहीन ज्ञान और ज्ञानविहीन आवरण दोनों निरर्थक हैं और संसार रूपी दावानल से साधक को बचाने में असमर्थ हैं। जिस प्रकार एक चक्र से रथ नहीं चलता, अकेला अन्धा तथा अकेला पंगु इच्छित साध्य तक
उत्तराध्ययन, ६/९-१० ।
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३ उत्तराध्ययन, ६ / ११ ।
५. वही, ११५१-५४
२२/१/७०
४ आवश्यक नियुक्ति, ९५-६७ ।
६ आवश्यक नियुक्ति. १००।