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१४ वरणानुयोग : प्रस्तावना
हम अपने दृष्टिकोण से इनमें से किसे प्रथम स्थान दें, दर्शन को प्राथमिकता प्रदान की गई है। चारित्र साधना मार्ग में इसका निर्णय करने के पूर्व दर्शन शब्द के अर्थ का निश्चय कर गति है, जब ज्ञान साधना पथ का बोध है और दर्शन यह विश्वास लेना जरूरी है। दर्शन शब्द के तीन अर्थ है-(१) यथार्थ जाग्रत करता है कि वह पथ उसे अपने लक्ष्य की ओर ले जाने दृष्टिकोण, (२) श्रद्धा और (३) अनुभूति । इसमें अनुभूतिपरक वाला है। सामान्य पथिक भी यदि पथ के ज्ञान एवं इस दृढ़ अर्थ का सम्बन्ध तो शानमीमांसा है और उस सन्दर्भ में यह ज्ञान विश्वास के अभाव में कि वह पच उमके वांछित लक्ष्य का पूर्ववर्ती है। यदि हम दर्शन का यथार्थ दृष्टिकोणपरक अर्थ को जाता है, अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता तो फिर लेते हैं तो साधना-मार्ग की दृष्टि से उसे प्रथम स्थान देना आध्यात्मिक साधना मार्ग का पथिक बिना शान और आस्था चाहिए। क्योंकि यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण ही मिथ्या है. (श्रद्धा) के कैसे आगे बढ़ सकता है ? उत्तराध्ययनसूत्र में कहा अयथार्थ है तो न तो उसका ज्ञान सम्यक् (यथार्थ) होगा और न गया है कि ज्ञान से (यथार्थ साधना मार्ग को) जाने, दर्शन के चारित्रही। यथार्थ दृष्टि के अभाव में यदि ज्ञान और चारित्र द्वारा उस पर विश्वास करे और चारित्र से उस साधना मार्ग पर सम्यक् प्रतीत भी हों, तो भी वे सम्यक् नहीं कहे जा सकते। आचरण करता हुआ तप से अपनी आत्मा का परिशोधन करे। वह तो सांयोगिक प्रसंग मात्र है। ऐसा साधक दिग्भ्रान्त भी हो यद्यपि लक्ष्य को पाने के लिए चारित रूप प्रयास आवश्यक सकता है। जिसकी दृष्टि ही दुषित है, वह क्या सत्य को जानेगा है, लेकिन प्रवास को लक्ष्योन्मुख और सम्यक होना चाहिए। और क्या उसका आचरण करेगा? दूसरी ओर यदि हम सम्यग्दर्शन मात्र अन्धे प्रयासों से लक्ष्य प्राप्त नहीं होता। यदि व्यक्ति का का श्रद्धापरक अर्थ लेते हैं तो उसका स्थान ज्ञान के पश्चात ही दृष्टिकोण यथार्थ नहीं है तो शान यथार्य नहीं होगा और ज्ञान होगा। क्योंकि अविचल श्रद्धा तो ज्ञान के बाद ही उत्पन्न हो के यथार्थ नहीं होने पर चारित्र या आचरण भी यथार्थ नहीं सकती है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी दर्शन का श्रद्वापरक अर्थ होगा। इसलिए जैन आगमों में चारित्र से दर्शन (शा) की करते समय उसे ज्ञान के बाद ही स्थान दिया गया है, उसमें प्राथमिकता बताते हुए कहा गया है कि सम्यग्दर्शन के अभाव में कहा गया है कि ज्ञान से पदार्थ (तत्व) स्वरूप को जाने और सम्यक्चारित्र नहीं होता। दर्शन के द्वारा उस पर श्रद्धा करे ।। व्यक्ति के स्वानुभव (ज्ञान) भक्त परिजा में कहा गया है कि दर्शन से भ्रष्ट (पतित। के पश्चात ही जो श्रद्धा उत्पन्न होती है, उसमें जो स्थायित्व ही वास्तविक भ्रष्ट है, चारित्र से भ्रष्ट भ्रष्ट नहीं है, क्योंकि जो होता है वह ज्ञानाभाव में प्राप्त हुई श्रद्धा से नहीं हो सकता । दर्शन से युक्त है वह संसार में अधिक परिभ्रमण नहीं करता ज्ञानाभाव में जो श्रद्धा होती है, उसमें संशय होने की सम्भावना जबकि दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति संसार से मुक्त नहीं होता। कदाचित हो सकती है । ऐसी श्रद्धा यथार्थ श्रद्धा नहीं वरन् अन्धश्रद्धा ही चारित्र से रहित सिद्ध भी हो जादे, लेकिन दर्शन से रहित कभी हो सकती है। जिन-प्रणीत तत्वों में भी यथार्थ श्रद्धा तो उनके भी मुक्त नहीं होता। स्वानुभव एवं तार्किक परीक्षण के पश्चात ही हो सकती है। वस्तुतः दृष्टिकोण या श्रद्धा ही एक ऐसा तत्त्व है नो व्यक्ति यद्यपि साधना के लिए, आचरण के लिए श्रद्धा अनिवार्य तत्व है, के ज्ञान और आचरण का सही दिशा-निर्देश करता है। आचार्य लेकिन वह ज्ञानप्रसूत होनी चाहिए। उत्तराध्ययन सूत्र में भद्रबाहु आचारांगनियुक्ति में कहते हैं कि सम्यकदष्टि से ही स्पष्ट कहा है कि धर्म की समीक्षा प्रशा के द्वारा करे, तक' से तप, ज्ञान और सदाचरण सफल होते हैं। सम्स आनन्दघन दर्शन ताब का विश्लेषण करे। इस प्रकार मेरी मान्यता के अनुसार की महत्ता को सिद्ध करते हुए अनन्तजिन के स्तवन में कहते हैंयथार्थ दृष्टिपरक अर्थ में सम्यग्दर्शन को ज्ञान के पूर्व लेना शुद्ध अशा बिना सर्व किरिया करी, चाहिए, जबकि श्रद्धापरक अर्थ में उसे ज्ञान के पश्चात स्थान छार (राख) पर लीपणु तेह जाणो रे । देना चाहिए।
सम्याशान और सम्पचारित्र को पूर्वापरता सम्पर्शन और सम्यक्चारित्र का पूर्वापर सम्बन्ध
जन विचारकों ने चारित्र को ज्ञान के बाद ही रखा है। चारित्र और ज्ञान दर्शन के पूर्वापर सम्बन्ध को लेकर जैन- दशर्वकालिक सूत्र में कहा गया है कि जो जीब और जीव के विचारणा में कोई विवाद नहीं है । चारित्र की अपेक्षा ज्ञान और स्वरूप को नहीं जानता, ऐसा जीव और अजीब के विषय में
उधृत, आत्मसाधना संग्रह, पु. १५१ । ३ उत्तराध्ययम, २८/३५। ५ मतपरिझा, ६५-६६ ।
२ उसराध्ययन, २३/२५ । ४ वही, २८/२६ । ६ आचारांगनियुक्ति, २२१ ।