Book Title: Charananuyoga Part 2
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 18
________________ १२ | चरणानुयोग : प्रस्तावना निष्काम भाव से जीवन जीना कुछ बिरले लोगों के लिए सम्भव है तो ये सब निरर्थक हैं, उनका कोई मूल्य नहीं है। इनकी कोई हो सकता है, जनसामान्य के लिए यह सम्भव नही है। किन्तु उपादेयता नहीं । ये क्रियाकांड साधन हैं, और साधनों का मूल्य दूसरी ओर यह भी सत्य है कि ममता, आसक्ति या तृष्णा ही तभी तक है जब तक ये साध्य की उपलब्धि में सहायक होते है। सभी दुःखों की जड़ है, संसार के सारे संघर्षों का कारण है। आइये, परखें और देखें कि जैन धर्म में धर्म साधना के उपाय उसे छोड़े मा उस पर नियन्त्रण किये बिना न तो व्यक्तिगत कौन से हैं और इनको मूल्यवत्ता क्या है? जीवन में और न सामाजिक जीवन में सुख-शान्ति आ सकती विविध साधना-मार्ग है । यही मानव-जीवन का विरोधाभास है। एक ओर ममत्व जैन दर्शन मोक्ष की प्राप्ति के लिए त्रिविध साधना मार्ग और कामना (चाह) सरस एवं सक्रिय जीवन के अनिवार्य तत्व प्रस्तुत करता है । तत्वार्थ सूत्र के प्रारम्भ में ही कहा है सम्यगहै तो दूसरी और वे ही दुःख और संघर्ष के कारण भी है। जैन ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र मोक्ष का मार्ग है। और बौद्ध परम्पराओं में जीवन को जो दुःखमय कहा गया है उत्तराध्ययन सूत्र में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और उसका कारण यही है । ममत्व और कामना (तृष्णा) के बिना सम्यक्-तप ऐसे चतुर्विध मोक्ष मार्ग का भी विधान है। परवर्ती जीवन चलता नहीं है और जब तक ये उपस्थित हैं जीवन में जैन आचार्यों ने तप का अन्तर्भाव चारित्र में किया है और सुख-शान्ति सम्भव नहीं है। इसलिए परवर्ती साहित्य में इसी विविध साधना मार्ग का विधान चाहे एक बार हम इस बात को मान भी लें कि जीवन में मिलता है । आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार एवं नियमसार में, पूर्णतया अनासक्ति या निर्ममत्य लादा नहीं जा सकता, किन्तु आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' में, आचार्य हेमचन्द्र ने साथ ही हमें यह भी मानना ही होगा कि यदि हम अपने जीवन योगशास्त्र में त्रिविध साधना पथ का विधान किया है। को और मानव समाज को दुःख और पीड़ाओं से ऊपर उठाना त्रिविध साधना मार्ग ही क्यों ? चाहते हैं, तो ममता और कामना के त्याग अथवा उन पर यह प्रश्न उठ सकता है कि विविध साधना मार्ग का ही नियन्त्रण के अतिरिक्त, अन्य कोई विकल्प भी नहीं है। जीवन विधान क्यों किया गया है? वस्तुतः विविध साधना मार्ग के में जब तक ममता की गांठ टूटती नहीं है, आयकिन छुटानी नहीं विधान में पूर्ववर्ती ऋषियों एवं प्राचार्यों की गहन मनोवैज्ञानिक है, कामना (तृष्णा) समाप्त नहीं होती है, तब तक आत्मिक सूझ रही है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानवीय चेतना के तीन पक्ष शान्ति और सुख सम्भव नहीं है। यदि हमें सुख और शान्ति की माने गये हैं-ज्ञान, भाव और संकल्प । जीवन का साध्य चेतना अपेक्षा है, तो निश्चित रूप से आसक्ति और ममता की गांठ को के इन तीनों पक्षों के परिष्कार में माना गया है। अतः यह खोलना होगा और जीवन में समभाव और अनासक्ति (निष्का- आवश्यक ही था कि इन तीनों पक्षों के परिष्कार के लिए विविध मता) को लाना होगा। साधना पथ का विधान किया जाये। चेतना के भावात्मक पक्ष कर्मकाण्ड धर्मसाधना का लक्ष्य नहीं को सम्यक् बनाने के लिए एवं उसके सही विकास के लिए ___ सामान्यतया धर्म-साधना का सम्बन्ध कुछ विधि-विधानों, सम्यकदर्शन या श्रद्धा (भाव) की साधना का विधान किया गया। क्रियाकाण्डों, आचार-व्यवहार के विधि-निषेधों के साथ जोड़ा इसी प्रकार ज्ञानात्मक पक्ष के लिए ज्ञान का और संकल्पात्मक जाता है । हमसे कहा जाता है-'यह करो, और यह मत करो'। पक्ष के लिए सम्यक् पारित्र का विधान है। इस प्रकार हम किन्तु हमें यह स्मरण रखना है कि ये बाह्य कर्मकाण्ड धार्मिक देखते हैं कि त्रिविध साधना-पथ के विधान के पीछे जैनों की एक साधना के मूल तत्व नहीं है । यद्यपि मेरे कहने का यह तात्पर्य भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि रही है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने नहीं है कि धार्मिक जीवन में इनकी कोई उपयोगिता या सार्थकता पर हम पाते है-बौद्ध दर्शन में शील, समाधि और प्रज्ञा के रूप नहीं है । आचार, व्यवहार या कर्मकाण्ड धार्मिक जीवन के सदैव में और गीता में ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग के रूप में भी से ही आवश्यक अंग रहे हैं और सदैव रहेंगे । किन्तु हमें एक बात विविध साधना मार्ग के उल्लेख हैं। का स्मरण रखना होगा कि यदि हमारे इन धार्मिक कहे जाने पाश्चात्य चिन्तन में त्रिविध साधना-पथ वाले कियाकाण्डों, विधि-विधानों या आचार-नियमों से हमारी पाश्चात्य परम्परा में तीन नैतिक आदेश उपलब्ध होते हैंआसक्ति या ममता छूटती नहीं है, चाह और चिन्ता में कमी (१) स्वयं को जानो होती नहीं है, जीवन में विवेक एवं आनन्द का प्रस्फुटन नहीं होता (२) स्वयं को स्वीकार करो १ तत्त्वार्थसूत्र, ११॥ ३ साइकोलाजी एण्ड मारल्स, पृ० १८० । २ उत्तराध्ययन सूत्र २८/२ ।

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