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सदाचरण : एफ बौदिक विमर्श | १५
अज्ञानी साधक क्या धर्म (संयम) का आचरण करेगा ?1 उत्तरा- रखना चाहिए कि आचार्य मात्र ज्ञान की उपस्थिति में मोक्ष के ध्ययनसूत्र में भी यही कहा है कि सभ्यरज्ञान के अभाव में सदा- सदभाव की कल्पना करते हैं, फिर भी वे अन्तरंग' चारित्र की चरण नहीं होता । इस प्रकार जैन दर्शन ज्ञान को चारित्र से उपस्थिति से इन्कार नहीं करते हैं। अन्तरंग चारित्र तो कषाय पूर्व मानता है। जैन दार्शनिक यह तो स्वीकार करते हैं कि आदि के क्षय के रूप में सभी साधकों में उपस्थित होता है। सम्यक् आचरण के पूर्व सम्यक् ज्ञान का होना आवश्यक है, साधक और साध्य विवेचन में हम देखते हैं कि साधक आत्मा फिर भी वे यह स्वीकार नहीं करते हैं कि अफेला ज्ञान ही मुक्ति पारमार्थिक दृष्टि से ज्ञानमय ही है और वही ज्ञानमय आत्मा का साधन है। ज्ञान आचरण का पूर्ववर्ती अवश्य है, यह भी उसका साध्य है। इस प्रकार मानस्वभावमय' आत्मा हो मोक्ष पीना किया गण कि नान मन में दारिश माग नहीं का उपादान कारण है । क्योंकि जो ज्ञान है, वह आत्मा है और हो सकता। लेकिन यह प्रश्न विचारणीय है कि क्या शान ही जो आत्मा है वह ज्ञान है।' अतः मोक्ष का हेतु ज्ञान ही सिद्ध मोक्ष का मूल हेतु है?
होता है। साधना श्रय में ज्ञान का स्थान
इस प्रकार जैन-आचार्यों ने साधन प्रय में ज्ञान को अत्यधिक जैनाचार्य अमृतचन्द्रसूरि ज्ञान की बारित से पूर्वला को सिद्ध महत्व दिया है । आचार्य अमृतचन्द्र का उपयुक्त हष्टिकोण तो करते हुए एक चरम सीमा स्पर्ण कर लेते हैं। वे अपनी समयसार जैनदर्शन को शंकर के निकट खड़ा कर देता है। फिर भी यह टीका में लिखते हैं कि जान ही मोक्ष का हेतु है, क्योंकि ज्ञान का मानना कि जैन-दृष्टि में ज्ञान ही मात्र मुक्ति का साधन है, जैन अभाव होने से अज्ञानियों में अन्तरंग वत, नियम, सदाचरण और विचारणा के मौलिक मन्तव्य से दूर होना है। यद्यपि जैन तपस्या आदि की उपस्थिति होते हुए भी मोक्ष का अभाव है। साधना में शान मोक्ष-प्राप्ति का प्राथमिक एवं अनिवार्य कारण क्योंकि अज्ञान तो बन्ध या हेतु है, जबकि जागी में अज्ञान का है, फिर भी वह एकमात्र कारण नहीं माना जा सकता। ज्ञानासदभाव न होने से बाह्य व्रत, नियम, सदाचरण, तप आदि की भाव में मुक्ति सम्भव नहीं है, किन्तु मात्र ज्ञान से भी मुक्ति अनुपस्थिति होने पर भी मोक्ष या सदभाव है। आचार्य शंकर सम्भव नहीं है । जैन-आचावों ने ज्ञान को मुक्ति का अनिवार्य भी यह मानते हैं कि एक ही कार्य जान के अभाव में बन्धन का कारण स्वीकार करते हुए यह बताया कि श्रद्धा और चारित्र का हेतु और ज्ञान की उपस्थिति में मोक्ष का हेतु होता है। इससे आदर्योन्मुघ एवं सम्यक होने के लिए ज्ञान महत्वपूर्ण तथ्य है, यही सिद्ध होता है कि हम नहीं ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है। सम्यग्ज्ञान के अभाव में शहा अन्धश्रद्धा होगी और चारिक या आचार्य अमृतचन्द्र भी ज्ञान को विविध साधनों में प्रमुख मानते सदाचरण एक ऐसी कागजी मुद्रा के समान होगा, जिसका चाहे हैं। उनकी दृष्टि में सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र भी जान के बाह्य मूल्य हो, लेकिन आन्तरिक मूल्य शून्य ही है। आचार्य ही रूप हैं। वे लिखते हैं कि मोक्ष के कारण राम्यम्दान, ज्ञान कुन्दकुन्द, जो ज्ञानवादी परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं, वे भी और चारित्र हैं । जीवादि तत्वों के यथार्थ श्रद्धान रूप से तो जो स्पष्ट कहते हैं कि कोरे ज्ञान से निर्वाण नहीं होता यदि पक्ष ज्ञान है वह तो सम्यग्दर्शन है और उनका ज्ञान-स्वभाव में ज्ञान न हो और केवल श्रद्धा से भी निर्वाण नहीं होता यदि संयम होना सम्यग्ज्ञान है तथा रागादि के त्याग-स्वभाव से ज्ञान का (सदाचरण) न हो। होना सम्यक चारित्र है । इस प्रकार ज्ञान ही परमार्थत: मोक्ष का जैन-दार्शनिक शंकर के समान न तो यह स्वीकार करते हैं कि कारण है।
मात्र ज्ञान से मुक्ति हो सकती है, न रामानुज प्रभृतिः भक्ति मार्ग यहाँ पर आचार्य दान और चारित्र को ज्ञान के अन्य दो के आचार्यों के समान यह स्वीकार करते हैं कि मात्र भक्ति से मुक्ति पक्षों के रूप में सिद्ध कर मात्र जान को ही मोक्ष का हेतु सिद्ध होती है । उन्हें मीमांसा दर्शन की यह मान्यता भी ग्राह्य नहीं है करते हैं। उनके दृष्टिकोण के अनुसार वर्णन और चारिम भी कि मात्र कर्म से मुक्ति हो सकती है। वे तो श्रद्धा-समन्वित ज्ञान ज्ञानात्मक है, ज्ञान की ये पर्यायें हैं । यञ्चपि यहाँ हमें यह स्मरण और कर्म दोनों से मुक्ति की सम्भावना स्वीकार करते हैं ।
१ दशवकालिक, ४/१२॥
२ उत्तराध्ययन, २०/३० । ३ व्यवहारमाज्य, ७/२१७ ॥
४ समयसार टीका, १५३ । ५ गीता (०) . ५ पीठिका ।
६ समयसार टीका, १५५ । आचारांग, जे आया से विनाया, जे विनाया से आया।
जेण षियाण से आया, तं पडुच्छ पउिसखाए। १५/५ ८ प्रवचनसार, चारित्राधिकार, ३ ।