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सदाचरण एक बौद्धिक विमर्श | ११
धर्मसाधना का स्वरूप
अपने में ही निहित परमात्मा दर्शन दूर नहीं है। हमारा दुर्भाग्य तो यही है कि आज स्वामी का दास बना हुआ है। हमें अपनी हस्ती का अहसास हो नहीं है। किसी उर्दू शायर ने टीक ही कहा है
इन्सां की बदती अन्दाज से कमबख्त खुवा होकर बंदा नजर जनदर्शन में वीतराग का जीवनादर्श
धर्म के स्वरूप एवं साध्य की इस चर्चा के पश्चात् यह आद है कि हम इस पर भी विचार करें कि धर्म साधना क्या है ? धर्म को जीवन में किस प्रकार जीया जा सकता है ? क्योंकि धर्म साधना का तात्पर्य धर्म को जीवन में जीना है। धर्म जीवन जीने की एक कला है और उससे अलग होकर उसका तो कोई अर्थ है और न कोई मूल्य ही धर्म के स्वरूप की जैन दर्शन में नंतिक जीवन या साधना का परमसाध्य वीत- चर्चा में हमने जो कुछ निष्कर्ष रूप में पाया था वह यह कि रागता की प्राप्ति रहा है। जैन दर्शन में वीतराग एवं अरिहन्त "सगता धर्म है और ममता अधर्म है।" इसके साथ हमने (अर्हत् । जीवन-शैली (अ) इसी जीवनादर्श के प्रतीक है भीतराम की वह भी देखा कि मनुष्य भी व्यक्तिगत या सामाजिक जो भी होती है, इसका वजनावों में यत्र हुआ है चढ़ाएं हैं. दुःख है ये सब उसकी ममवबुद्धि राचाव और संक्षेप में उन आधारों पर उसे इस प्रकार से प्रस्तुत किया जा आसक्ति के परिणाम हैं। इसे हम इस प्रकार भी कह सकते हैं। सकता है । जैनागमों में आदर्श पुरुष के लक्षण बताते हुए कहा कि ममता दुःख का मूल है और समता सुख का मूल" जीवन गया है "जो यमस्य एवं अहंकार से रहित है, जिसके में में ममता भी छूटेगी और समता जिवनी प्रकटित होगी, चित्त जितनी कोई भक्ति नहीं है और जिसने अभिमान का त्याग कर दिया उतना ही दुःख कम होगा और व्यक्ति आनन्द का अनुभव है, जो प्राणिमात्र के प्रति समभाव रखता है। जो लाभ-लाभ, करेगा। समता और तृष्णा को छोड़ने से ही जीवन में समता सुख-दुःख, जीवन-मरण, मान-अपमान और निन्दा प्रशंसा में और सुख को पाया जा सकता है और दूसरे शब्दों में कहें तो समभाव रखता है। जिसे न इस लोक को और न परलोक की धर्म को जीवन में जीना जा सकता है। किन्तु ममता या रागकोई अपेक्षा है, किसी के द्वारा चन्दन का लेप करने पर और भाव का छूटना या छोड़ना अत्यन्त दुरूह या कठिन कार्य है । किसी के द्वारा वसूले के छीलने पर, जिसके मन में लेग करने वाले जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों के कारण हमारे जीवन में ममता पर राय-भाव और वसूले के छोलने वाले पर द्वेष-भाव नहीं और तृष्णा के तत्व इतनी गहराई तक पैठे हुए हैं कि उन्हें होता, जो खाने में और अनशन व्रत करने में समभाव रखता है, निकाल पाना सहज नहीं है। वीतराग, अनासक्ति या वीततृष्ण वही महापुरुष है ।"" जिस प्रकार अग्नि से शुद्ध किया हुआ सोना होने की बात कही तो बड़ी सरलता से जा सकती है, किन्तु निर्मल होता है. उसी प्रकार जो राग-द्वेष और भय आदि से जीवन में उसकी साधना करना अत्यन्त कठिन है । अनेक बार रहित है. वह निर्मल है। जिस प्रकार कमल कीचड़ एवं पानी में यह प्रप्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि कोई व्यक्ति वीतराग, उत्पन्न न होकर भी उसमें लिप्त नहीं होता उसी प्रकार को संसार बीततृष्य या अनासक्त होकर जीवन जी सकेगा ? अब जीवन कैसे के कम-भोगों में लिप्त नहीं होता, भाव मे सदैव ही निरत रहता में ममता नहीं होगी अपनेपन का बोल नहीं होगा, चाह नहीं है. उयवितामा अनासक्त पुरुष को इन्द्रियों के पदादिविषय होगी वो व्यक्ति को जीवन जीने का कौन सा आकर भी मन में राग-द्वेष के भाव उत्पन्न नहीं करते। जो विषय राम्रो जायेगा। ममता और चाह (तृष्णा) वस्तुतः हमारे जीवन व्यव व्यक्तियों को दुःख देते हैं, वे वीतरागी के लिए दुःख के कारण हार के प्रेरक तत्व हैं । व्यक्ति किसी के लिए भी जो कुछ करता नहीं होते हैं। वह राग, द्व ेष और मोह के अध्यवसायों को दोष- है, वह अपने ममत्व या रागभाव के कारण करता है, चाहे वह रूप जानकर सदैव उनके प्रति जागृत रहता हुआ माध्यस्थभाव राग प्रशस्त हो या अप्रशस्त अथवा वह फिर अपनी किसी इच्छा रखता है । किसी प्रकार के संकल्प-विकल्प नहीं करता हुआ तुष्णा (तृष्णा) की पूर्ति के लिए करता है। यदि राम और तृष्णा के का प्रहाण कर देता है। वीतराग पुरुष राग-द्वेष और मोह का ये दोनों तत्व जीवन से निकल जायें तो जीवन नीरस और प्रहाण कर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म का निष्क्रिय हो जायेगा क्योंकि राग मा. ममता के कारण जीवन में रस क्षय कर कृतकृत्य हो जाता है। इस प्रकार मोह, अन्तराय और है और चाह के कारण समिता । किन्तु यह दृष्टिकोण पूर्णतः बामणों से रहिता जीवराग सर्वेश, समदर्शी होता है। वह शुकस्य नहीं है। बाकि समस्या कृष्णा के अभाव में भी कर्तव्य आसक्ति, ध्यान और सुसमाधि सहित होता है और आयु का क्षय होने पर मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
भाव और विदेक युक्त करुणा के आधार पर जीवन जिया जा सकता है । यह सत्य है कि अनासक्त होकर मात्र कर्तव्यबोध या
बाहर है। आता है ।
१-२ उत्तराध्यवन, १९ / २०-२२, ३३ / १०६-११०, २० २१ २७-२८ ।