________________
सदाचरण : एफ बौद्धिक विमर्श | E मोक्ष : आस्म-साक्षात्कार
कि कषायों और इन्द्रियों से पराजित आत्मा ही संसार है और आत्म पूर्णता "पर" या पूर्व-अनुपस्थित वस्तु की उपलब्धि उनको विजित करने वाला आमा ही प्रबुद्ध पुरषों द्वारा मोक्ष नहीं वरन् आत्मोपलब्धि ही है। यह एक ऐसी उपलब्धि है, कहा जाता है।' अध्यात्मतत्वालोक में मुनि न्यायविजयजी कहते जिसमें पाना कुछ भी नहीं, वरन् सब कुछ खो देना है। यह पूर्ण है कि आत्मा ही संसार है और आत्मा ही मोक्ष हैं। जहां तक रिकता एवं शून्यता है । सब कुछ खो देने पर सब कुछ पा लिया आत्मा कषाय और इन्द्रियों के वशीभूत है, संसार है, और उनको जाता है । पूर्ण रिक्तता पूर्णता बनकर प्रकट हो जाती है। भौतिक ही जब अपने वशीभूत कर लेता है मोक्ष कहा जाता है। इस स्तर पर "पर" को पाकर "स्व" को खोते हैं लेकिन आध्या- प्रकार हम देखते हैं कि जैन धर्म का साध्य अर्थात् मोक्ष और त्मिक जीवन में “पर" को खोकर "स्व" को पा जाते हैं । जैन- साधक दोनों ही आत्मा की दो अवस्थाएँ (पर्याय) है। दोनों में दर्शन में इसे यह कहकर प्रकट किया गया है कि जितनी पर- मौलिक अन्तर यही है कि बात्मा जब तक विषय और कषायों परिणति या पृद्गल परिणति है उतना ही आस्म विस्मरण है, के वशीभूत होता है तम तक बन्धन में होता है और जब उन "स्व" को खोना है और जितनाराय:पति या पुगत पनि गति नगन्य नाम पर लेता है तब वही मुक्त बन जाता है । आता का अभाव है उतना ही आत्मरमण या "स्व" की उपलब्धि है। की वासनाओं के मल से युक्त अवस्था ही उसका बन्धन कही जाती हमारी जितनी "पर" में वासक्ति होती है, उतने ही हम "स्व" है और विशुद्ध आरम तत्व की अवस्था ही मुक्ति कही जाती है। से दूर होते हैं। इसके विपरीत "पर" में आसक्ति का जितना इसी प्रकार आसक्ति को बन्धन और अनासक्ति को मुक्ति मानना अभाव होता है, उतना ही हम "स्व" या आत्मा के समीप होते एक मनोवैज्ञानिक सत्व है। है। जितनी मात्रा में वासनाएं, अहंकार और नित्त-विकल्प कम जैन धर्म में साध्य और साधक दोनों में अन्तर केवल इस होते हैं, उतनी ही मात्रा में हमें आत्मोपलब्धि या आत्मसाक्षात्कार बात को लेकर है कि आत्मा की विभाव दशा ही साधक की होता है। जब चेतना में इनका पूर्ण अभाव हो जाता है, तो अवस्था है और आत्मा की स्वभाव दशा ही सिद्धावस्था है । जैन आत्मसाक्षात्कार आत्मपूर्णता के रूप में प्रकट हो जाता है। साधना का लक्ष्य अथवा आदर्श कोई बाह्य तत्व नहीं, वह तो
जैन नैतिकता का साध्य भी आत्मोपलब्धि या आत्म-साक्षा- साधक का अपना ही निजरूप है । उस को ही अपनी पूर्णता की कार ही है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि "मोक्षकामी को अवस्था है। साधक का आदर्श उसके बाहर नहीं वरन् उसके आत्मा को जानना चाहिए, आत्मा पर ही श्रद्धा करना चाहिए अन्दर ही है । साधक को उसे पाना भी नहीं है, क्योंकि पाया तो और आत्मा की ही अनुभूति (अनुचरितम) करना चाहिए। वह जाता है जो व्यक्ति में अपने में नहीं हो अथवा अपने से बाह्य सम्यगज्ञान, सम्यग्दर्शन, प्रत्याख्यान (त्याग), संबर (संयम) और हो । धर्म साधना का साध्य बाह्य उपलब्धि नहीं, आन्तरिक उपयोग सब अपने आपको गाने के साधन हैं। क्योंकि यही आत्मा लब्धि है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह अपना ही अनावरण है, ज्ञान में है, दर्शन में है, चारित्र में है, त्याग में है, संवर में है अपने आपको उपादना है, अपने निज गुणों का पूर्ण प्रकटन है। और योग में है। आचार्य कुन्दकुन्द के दृष्टिकोण से यह स्पष्ट यहाँ भी हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि आत्मा के निज गुण हो जाता है कि नैतिक क्रियाएँ आस्मोगलब्धि ही हैं । व्यवहारनय या स्व लक्षण तो सदैव ही उसमें उपस्थित है, साधक को केवल से जिन्हें ज्ञान, दर्शन और चारित्र कहा गया है, निश्चयनय से उन्हें प्रकटित करना है। हमारी क्षमताएँ साधक अवस्था और वह आत्मा ही है। इस प्रकार नतिक जीवन का लक्ष्य आत्म- सिद्ध अवस्था में वही हैं। साधक और सिद्ध अवस्था में अन्तर साक्षात्कार या आत्मलाभ है।
क्षमताओं का नहीं, वरन् क्षमताओं को योग्यताओं में बदल देने साध्य, साधक और साधना का पारस्परिक सम्बन्ध
का है। जैसे बीज वुस के रूप में विकसित होता है वैसे ही जैन धर्म में साध्य और साधक में अभेद माना गया है। मुक्तावस्था में आत्मा के निज गुण पूर्ण रूप में प्रकटित हो जाते समयसार टीका में आचार्य अमृतचन्द्र सूरि लिखते हैं कि परद्रव्य हैं। साधक आत्मा के ज्ञान, भाव' (अनुभूति) और संकल्प के तत्व का परिहार और शुद्ध आत्मतत्व की उपलब्धि ही सिद्धि है। ही मोक्ष की अवस्था में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य आचार्य हेमचन्द्र साध्य और साधक में अभेद बताते हुए लिखते हैं और अनन्त शक्ति के रूप में प्रकट हो जाते हैं। यह आत्मा जो
१ समयसार १५-१८ एवं उसकी आत्मरूपाति टीका । २ समयसार, आरमल्याति टोका ३०५ । ३ योगशास्त्र (हेमचन्द्र) ४५। ४ अध्यात्मतवालोक, ४६ ।