Book Title: Charananuyoga Part 2
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 13
________________ सदाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ७ विभाव से स्वभाव की ओर, संघर्ष से शान्ति की ओर, तनाव से है। जब तक अपूर्णता है, कामना है; और जब तक कामना है, समाधि (तनाव-मुक्ति) की ओर अथवा ममत्व से सगत्व की ओर समत्व नहीं है । अतः पूर्ण समत्व के लिए आत्मपूर्णता आवश्यक यात्रा करना यही धामिक साधना और नतिक आचरण का है। हमारे व्यावहारिक जीवन में भी हमारा प्रयत्न चेतना के ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक और संकल्पात्मक पक्षों के विकास के मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है और विवेकशील प्राणी के निमित्त होता है । अन्तश्चेतना सदैव ही इस दिशा में प्रयत्नशील रूप में उसका आचरण सदैव ही लक्ष्मोन्मुख होता है । समाधि, रहती है कि हम अपनी ही चेतना के इन तीनों पक्षों को देशशान्ति अथवा समत्त्व को लक्ष्य बनाकर जो आचरण किया जाता कालगत सीमाओं का अतिक्रमण कर सकें। व्यक्ति अपनी शानाहै वहीं आचरण नैतिक और धार्मिक जीवन का सूचक होता है। स्मक, अनुभूत्यात्मक और संकल्पात्मक क्षमताओं की पूर्णता जैन परम्परा में जो मोक्ष को दुःखों के आत्यन्तिक अभाय की चाहता है । सीमितता और अपूर्णता का बोध व्यक्ति के मन की अ. हा है. कासी हैं कि व्यक्ति तनावों एक कसक है और वह सदैव ही इस कसक से छुटकारा पाना से मुक्त हो, क्योंकि तनाव या चैनसिक अशान्ति ही वास्तविक चाहता है । उसकी सीमितता और अपूर्णता जीवन की बह प्यास दुःख है। बस्तुलः सामाजिक जीवन में जो अशान्ति और संघर्ष है, जो पूर्णता के जल से परिशान्त होना चाहती है। जब तक देखे जाते हैं उनका भी मूलभूत कारण व्यक्ति की आंतरिक आत्मपूर्णता को प्राप्त नहीं कर लिया जाता, तब तक पूर्ण समरत्व वासनाएँ और आकांक्षाएँ ही होती हैं। जिनकी पूर्ति के लिये नहीं होता, और जब तक पूर्ण समत्त्व नहीं होता, आध्यात्मिक व्यमित न केवल अपने को दुःखी बनाता है अपितु अपने साथियों पूर्णता भी सम्भव नहीं होती। आध्यात्मिक पूर्णता, आत्मपूर्णता को अथवा सामाजिक जीवन को भी दुःखी या तनाव-युक्त बनाता और पूर्ण समत्व एक दूसरे के पर्यायवाची ही हैं । काण्ट ने नैतिक है । अतः मोक्ष जिसे सामान्यतया वैयक्तिक साधना का लक्ष्य विकास की दृष्टि से आत्मा की अमरता को अनिवार्य माना है। माना जाता है वह सामाजिक शोति का भी आधार होता है। नैतिक पूर्णता भी आस्म पूर्णता की अवस्था में ही सम्भव है। यह स्थितप्रज्ञ या वीतराग पुरुषों का जीवन वैयक्तिक और सामाजिक पूर्णता या अनन्त तक प्रगति, केवल इस मान्यता पर निर्भर है दोनों स्तरों पर संघर्ष की स्थिति में नहीं होता है। अत: जो कि व्यक्तित्व में उस पूर्ण ना को प्राप्त करने की क्षमता है और लोग धर्म साधना या नैतिकता के लक्ष्य मोक्ष या निर्वाण को उस अनन्तता या पूर्णता तक पहुंचने के लिए उसकी स्थिरता भी मात्र वैयक्तिक मानते हैं, उनकी यह धारणा उचित नहीं है। अनन्त है। दूसरे शब्दों में आत्मा अमर है । काण्ट ने अनन्त की धर्म और नैतिकता वैयक्तिक होने के साथ-साथ सामाजिक भी दिशा में नैतिक प्रगति के लिए आत्मा की अमरता पर बल है । अतः भ्रामिक और नैतिक साधना का लक्ष्य बक्तिक और दिया, लेकिन अरबन ने प्रगति को भी नैतिकता की एक स्वतन्त्र सामाजिक दोनों स्तरों पर समत्व का संस्थापन करना है। अतः मान्यता कहा है । यदि नैतिक प्रगति की सम्भावना को स्वीकार जैन धर्म में हमें धर्म की जो परिभाषाएं समत्व और अहिंसा के नहीं किया जायेगा, तो नैतिक जीवन का महान उद्देश्य समाप्त रूप में मिलती हैं वे भात्र वैयक्तिक जीवन एवं साधना से सम्ब- हो जायेगा और नैतिकता पारस्परिक सम्बन्धों की एक कहानी न्धित नहीं हैं । जब हम समता को धर्म कहते हैं तो वह समल मात्र रहेगी। व्यक्ति और समाज दोनों का है। वैयक्तिक समता के बिना पाश्चात्य जगत में नैतिक प्रगति का तात्पर्य मात्र सामाजिक सामाजिक समता सम्भव नहीं है । व्यक्ति और समाज एक दुगरे सम्बन्धों एवं सामाजिक जीवन की प्रगति है। जबकि भारतीय से इस प्रकार जुड़े हुए हैं कि उन्हें चाहे अलग-अलग देखें और दर्शन में नैतिक प्रगति से तात्पर्य, व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास जानें, किन्तु उन्हें कभी भी अलग-अलग किया नहीं जा सकता। है। मोक्ष, निर्वाण या परमात्मा की उपलब्धि के रूप में नैतिक मोक्ष : आत्म पूर्णता गुर्णता की प्राप्ति को सम्भव मानना नैतिक जीवन की रजिसे नैतिक जीवन का साध्य येवल समत्व का संस्थापन ही नहीं अति आवश्यक है। यदि आत्मपूर्णता या परमश्रेय की प्राप्ति है, बरन इसरो भी अधिक है, और वह है आत्मपूर्णता की दिशा सम्भव नहीं है, तो सदाचरण, नैतिक जीवन और नैतिक प्रगति में प्रगति । क्योंकि जब तक अपूर्णता है, समत्व के विचलन की का कोई अर्थ नहीं रहेगा। नैतिक प्रगति के अन्तिम चरण के सम्भावनाएँ भी हैं। अपूर्णता की अवस्था में सदैव ही चाह रूप में माध्यात्मिक पूर्णता या बारमपूर्णता आवश्यक है। (Want) उपस्थित रहती है और जब तक कोई भी वाह बनी वस्तुतः हमारी चेतना में अपनी अपूर्णता का जो बोध है, हुई है, समत्य नहीं हो सकता । कागना, वासना और चाह सभी वह स्वयं ही हमारे अन्तस् में निहित पूर्णता का संकेत है । हमें असन्तुलन की सूचक है, उनकी उपस्थिति में रामस्व सम्भव नहीं अपनी अपूर्णता का स्पष्ट बोध है. लेकिन यह अपूर्णता का स्पष्ट होता । समत्व तो पूर्ण निष्काम एवं अनासक्त जीवन में सम्भव बोध बिना पूर्णता के या बिना प्रत्यय के सम्भव नहीं। यदि

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