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समाचरण : एक बौद्धिक विमर्श | ५ चौतसिक स्थिति के कारण क्या हैं ? और उन कारणों का निरा- करना आवश्यक है, क्योंकि धर्म साधना भी चत्तसिक विकृतियो करण कर किस प्रकार आध्यात्मिक शुद्ध स्वरूप प्राप्त किया जा की चिकित्सा ही है। यदि व्यक्ति स्वयं इतना समर्थ है कि वह सकता है ? जब स्थानांग सूत्र में धर्म का क्षमा आदि सद्गुणों से अपनी विकृति (रोग) को स्वयं जानकर चिकित्सा द्वरा उस जो तादात्म्य बताया गया है. तो उसका तात्पर्य भी यही है कि विकृति का उपशमन या निरसन कर सकता है, तो उसे अधिकार व्यक्ति इन गुणों को अपने जीवन में अपनाकर चत्तसिक समत्व या है कि वह अपना मार्ग स्वयं बनाये और उस पर चले, उसे गुरु, शान्ति का अनुभव करता हमा अपनी आध्यात्मिक विकास-याचा मार्गदर्शक या धर्मोपदेष्टा की आवश्यकता नहीं है, उसके लिए या स्व-स्वरूप की उपलब्धि की दिशा में आगे बढ़ सके। यह जरूरी नहीं है कि वह दूसरे के उपदेशों और आदेशों का
वस्तुतः एन सद्गुणों की साधना का तात्पर्य भी यही है कि पालन करें । ऐसा साधक स्वयं-सम्बुद्ध या प्रत्येक-बुद्ध होता है । व्यक्ति की वासनाएँ और मानसिक सनाव कम हों और वह अपनी किन्तु सभी व्यक्तियों में ऐसी सामर्थ्य नहीं होती है कि वे अपनी शुद्ध स्वाभाविक तनावरहित एवं शान्त आत्मदशा की अनुभूति आध्यात्मिक विकृतियों को स्वयं जानकर उनके कारणों का निदान कर सके । यदि हम संक्षेप में कहें तो जैन दृष्टि से धर्म विभाव से और निराकरण कर सकें। ऐरो साधकों के लिए गुरु, तीर्थकर स्वभाव की ओर यात्रा है। कषाय और दुगुण या दुष्प्रवृत्तियों अथवा वीतराग पुरुष के आदेश और निर्देश का पालन आवश्यक मनुष्य को विभाव दशा अथवा पर-परिणति की सूचक हैं, क्योंकि है। ऐसे ही लोगों को लक्ष्य में रखकर आगम में यह कहा गया है ये पर के निमित्त से होती हैं । इनकी उपस्थिति में व्यक्ति मान- कि तीर्थंकर के आदेशों का पालन ही धर्म है। सिक तनावों से युक्त होकर जीवन जीता है तथा उसकी आध्या- यद्यपि जैन धर्म इस अर्थ में अनीश्वरवादी धर्म है क्योंकि त्मिक शान्ति और आध्यात्मिक समता भंग हो जाती है। अतः वह विश्व के सृष्टा और नियन्ता के अर्थ में ईश्वर को स्वीकार कषायों के निराकरण के द्वारा व्यक्ति को खोई हुई आध्यात्मिक नहीं करता है। अतः उसकी आस्था का केन्द्र और मार्ग निर्देशक शक्ति को पुनः प्राप्त करना अथवा समत्व दशा या स्व-स्वभाव में विफ-नियन्ता ईश्वर नहीं, अपितु वह चीतराग परमात्मा है, स्थित होना यही धर्म का मूल उद्देश्य है। कोई भी धार्मिक जिसने अपनी साधना के द्वारा राग-दोषजन्य आवेगों एवं आत्मसाधना पद्धति या आराधना विधि यदि उसे विभाव से स्वभाव' विकारों पर विजय प्राप्त कर समभावयुक्त शुद्धात्म-दशा, परमकी ओर, यमता से समता की ओर, मानसिक आवेगों और शान्ति या समाधि को उपलब्ध कर लिया है। जनधर्म में तीर्थकर तनावों से आध्यात्मिक शान्ति की ओर ले जाती है तो वह सार्थक के आदेशों का पालन या उसके प्रति श्रद्धा या भक्ति का प्रदर्शन कली जा सकती है, अन्यथा वह निरर्थक होती है। क्योंकि जो इसलिये नहीं किया जाता है कि वह प्रसन्न होकर हमें दुःख या आचरण वैयक्तिक या सामाजिक समता को भंग करता है वह धर्म अपूर्णता से मुक्ति दिलायेगा अथवा संकट की घड़ी में हमारी नहीं अधर्म ही है। इसके विपरीत जो आचरण वैयक्तिक और सहायता के लिए दौड़ा हुआ चला आयेगा, अपितु इसलिए किया सामाजिक जीवन में समत्ता या शान्ति लाता है. वह धर्म है। जाता है कि उसके माध्यम से हम अपने शुद्ध स्वरूप का बोध कर
जब हम धर्म को वीतराग प्रभु के प्रति अनन्य मास्था या सकें । उसके आदेशों का पालन इसलिए करना है कि सुयोग्य उनके आदेशों के पालन के रूप में देखते हैं तो भी वह समत्व चिकित्सक की मांति उसके निर्देशों का पालन करने से या उसके संस्थापन रूप अपने उस मूल स्वरूप से भिन्न नहीं होता है। जीवनादों का अनुसरण करने से हम आत्म-विकारों का उपशमन वस्तुतः वे सभी साधक जो बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास की कर शुद्धात्मदशा को प्राप्त कर सकेंगे। दृष्टि से अग्निम कक्षाओं में स्थित नहीं हैं, अथवा जिनको धर्म (अतः धर्म को चाहे वस्तु स्वभाव के रूप में परिभाषित किया और अग्रम की सम्यक् समझ नहीं है, उनके लिए उपादेय यही है जाये, चाहे समता या अहिंसा के रूप में परिभाषित किया जाये, कि वे उन लोगों के जीवन और उपदेशों का अनुसरण करें, चाहे हम उसे जिन-आज्ञा पालन के रूप में व्याख्यायित करें, जिन्होंने मानसिक आवेगों, वासनाओं और कषायों से अर्थात उसका मूल हाद यही है कि वह विभाव से स्वभाव की ओर यात्रा) विभाव दशा से ऊपर उठकर आध्यात्मिक समता अथवा वीतराग है। वह आत्मशुद्धि अर्थात् वासना परिष्कार की दिशा में सम्यक् दया का अनुभव किया है। जिस प्रकार हक विकृतियों से छुट- संचरण है । अतः धर्म और सदाचरण भिन्न नहीं है। यही कारण कारा पाने के लिये वंच के आदेशों और निर्देश का पालन उप- है कि स्थानांग की टीका में आचार्य अभयदेव ने और प्रवचनसार योगी है, उसी प्रकार आध्यात्मिक कमियों से छुटकारा पाने के में आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्र को भी धर्म का लक्षण माना है। लिए वीतराग प्रभु के आदेशों और जीवनादों का अनुसरण जैनाचार्यों ने आगम साहित्य की विषय वस्तु का जिन चार
१ (अ) स्थानांग टीका ४/३/३२०
(ब) प्रवचनसार, १७