Book Title: Charananuyoga Part 2
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 12
________________ ६ | परणानुयोग : प्रस्ताघना अनुयोगों में विभाजन विया है, उनमें चरणकरणानुयोग ही ऐसा मोक्ष का सम्बन्ध पारलौकिक जीवन से है। लेकिन यह एक है जिसका सीधा सम्बन्ध धर्म साधना से है । धर्म मात्र ज्ञान नहीं भ्रान्त धारणा ही होगी। मोक्ष दुःख-विमुक्ति और आत्मोपलब्धि है अपितु जीवन शैली है। वह जानने की नहीं जीने की वस्तु, है जो इसी जीवन में प्राप्तव्य है। है। धर्म वह है जो जिया जाता है। अतः धर्म सदाचरण या मोक्ष : समत्व का संस्थापन सम्यक चारित्र का पालन है। ___जैनों की यह स्पष्ट मान्यता है कि दुःख-विमुक्ति पारलौकिक धर्म : रलय को साधना जीवन का तथ्य न होकर ऐहिक जीवन का ही सभ्य है। वस्तुतः सामान्यतया जैन परम्परा में सम्यक्दर्शन, सम्यज्ञान धर्म साधना और सदाचरण का लक्ष्य जीवन में तनावरहित, और सम्बकुचारित्र को रत्नत्रय के नाम से अभिहित किया समत्वपूर्ण, शान्त आत्मयशा को प्राप्त करना है। जैसाकि हम गया है। पूर्व में कह चुके हैं कि च्याल्याप्रज्ञप्ति सूत्र के अनुसार समत्व या दिगम्बर परम्परा में आचार्य कार्तिकेय ने अपने ग्रन्थ 'बारस्त समभाव की प्राप्ति ही आत्मा का लक्ष्य है। अणुवेक्खा" (४७८) में रत्नत्रय की साधना को धर्म कहा है। वस्तुतः मनुष्य का जीवन अन्तईन्द्वों से युक्त है। मानव वस्तुतः रत्नत्रय की साधना से भिन्न धर्म कुछ नहीं है। मनो- जीवन में हम तीन प्रकार के संघर्ष पाते हैं-प्रथम मनोवृत्तियों वैज्ञानिक दृष्टि से हमारे अस्तित्व का मूल केन्द्र चेतना है और का आन्तरिक संघर्ष । यह संघर्ष दो बासनाओं के मध्य अथवा चेतना के तीन पक्ष हैं- ज्ञान, भाव (अनुभूति) और सवल्प । वासना और बौद्धिक आदर्शों के बीच होता है। आधुनिक मनोवस्तुतः रत्नत्रय की साधना अन्य कुछ नहीं, अपितु चेतना के इन विज्ञान इसे वासनात्मक अहं (id) और आदर्शात्मक अहं तीनों पक्षों का परिशोधन है। क्योंकि सम्यक्जान, सम्यकुदर्शन (Super ego) का संघर्ष कहता है। जिसे हम वासना और और सम्यक चारित्र क्रमश: वस्तु के यचार्य स्वरूप का बोध करा- नैतिक आध्यात्मिक आदर्शों का संघर्ष भी कह सकते हैं । वस्तुतः कर जय के प्रति हमारी आसक्ति या राग भाव को जुड़ने नहीं यही संघर्ष व्यक्ति की आन्तरिक शान्ति को भंग कर तनाव देता है और हमें ज्ञाता-द्रष्टा भाव या समभाव में स्थित रखता उत्पन्न करता है । दूसरे प्रकार का संघर्ष व्यक्ति की आन्तरिक है। इस प्रकार हमारी चेतना के ज्ञानात्मक पक्ष के परिशोधन का आकांक्षाओं (इच्छाओं) और बाह्य परिस्थितियों के बीच होता उपाय सम्यक् ज्ञान, भावात्मक पक्ष के परिशोधन का उपाय हैं । आन्तरिक आकांक्षाएँ और उनकी पूर्ति के बाह्य साधनों के सम्यक्दर्शन और संकल्पात्मक पक्ष के परिशोधन का उपाय मध्य यह संघर्ष चलता है। यह संघर्ष, व्यक्ति और उराके भौतिक सम्यक्चारित्र है। अतः रत्नत्रय की साधना भी अपने ही शुद्ध परिवेश, व्यक्ति और व्यक्ति अथवा व्यक्ति और समाज के मध्य स्वरूप की साधना है, क्योंकि यह स्व-स्वरूप में अवस्थिति के द्वारा होता है। आकांक्षाएँ या वासनाएँ जहाँ व्यक्ति की आन्तरिक समभाव और वीतराग की उपलब्धि का कारण है। शान्ति को भंग करती हैं वहीं उनकी पूर्ति के प्रयल बाह्म सामाजैन साधना का लक्ष्य : मोक्ष जिक जीवन की शान्ति को भंग करते हैं। इस प्रकार यह संघर्ष सामान्यतया यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि व्यक्ति धर्म अन्तर और बाह्य दोनों ही प्रकार की शान्ति को भंग करता है। या सदाचार का पालन क्यों करे? पाश्चात्य नीतिशास्त्र में इस तीसरे प्रकार का संघर्ष बाह्य परिवेश में होने वाला संघर्ष है, जो प्रश्न का उत्तर मात्र सामाजिक व्यवस्था के आधार पर दिया विविध समाजों और राष्ट्रों के मध्य होता है। प्रत्येक समाज और जाता है। लेकिन जैन परम्परा सदाचार और दुराचार के परि- राष्ट्र अपनी अस्मिता के लिए इस प्रकार के संघर्ष को जन्म देता णामों को केवल इहलौकिक सामाजिक कल्याण या अकल्याण तक है। यद्यपि यह संघर्ष बाह्य होते हुए भी व्यक्ति से जुड़ा हुआ ही सीमित नहीं मानती है। यद्यपि इसका तात्पर्य यह भी नहीं है कि है, क्योंकि व्यक्ति किसी न किसी स्तर पर समाज से जुड़ा हुआ जैन धर्म में धर्म साधना या नैतिक जीवन वा सम्बन्ध मात्र ही होता है । इन संघर्षों को समाप्त करके वैयक्तिक और सामापारलौकिक जीवन से माना गया है। जैन धर्म के अनुसार धर्म जिक जीवन में समत्व और शान्ति की स्थापना करना ही धर्म का साधना न तो इहलौकिक जीवन के लिए होती है और न लक्ष्य रहा है। पारलौकिका जीवन के लिए होती है, अपितु वह व्यक्ति को विक- यहाँ हमें यह समझ लेना चाहिये कि संघर्ष या समत्व के तियों या दुष्प्रवृत्तियों के परिशोधन के द्वारा आध्यात्मिक विकास विचलन जीवन में घटित होते रहते हैं, फिर भी वे हमारा के लिए होती है। सामान्यतया जैन आगमों में धार्मिक और स्वभाव नहीं हैं। अस्तित्व के लिए भी संघर्ष करना होता है नैतिक जीवन का सार सर्व दुःखों का अन्त और भव-परम्परा की किन्तु जीवन का लक्ष्य संघर्ष या तनाव नहीं, अपितु संघर्ष या समाप्ति माना गया है और इसलिये कभी-कभी यह मान लिया तनाव (Tension) का निराकरण है। अतः संघर्ष व्यक्ति और जाता है कि जैन धर्म में धार्मिक और नैतिक साधना के लक्ष्य समाज की वैभाविक-दशा (विकृत दशा) के सूचक है, जबकि

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