Book Title: Charananuyoga Part 2
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ १. [चरणानुयोग : प्रस्तावना कषाम और राग-द्वेष से युक्त है और इनसे युक्त होने के कारण त्रिविध सकल सनुधर गत आतमा, बद, तौर अपूर्ण है, हो पा शत नाम. यात बहिरातम अघरूप मुज्ञानी। दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति को प्रकट कर मुक्त एवं बीजो अन्तर आतमा तीसरो, पूर्ण बन जाता है। उपाध्याय अमर मुनिजी के शब्दों में जैन परमातम अविच्छेद सुशानी ।। साधना के स्व में स्व को उपलब्ध करना है, निज में निज की विषय-भोगों में उलझा हुआ वात्मा बहिरात्मा है। संसार शोध करना है, अनन्त में पूर्णरूपेण रममाण होना है-आत्मा के के विषय-भोगों में उदासीन साधक अन्तरात्मा है और जिसने बाहर एक कण में भी साधक की उन्मुखता नहीं है। इस प्रकार अपनी विषय-वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है, जो विषयहम देखते हैं कि जैन विचारणा में तात्विक दृष्टि से माध्य और विकार से रहित अनन्त चतुष्टय से युक्त होकर ज्ञाता द्रष्टा भाव साधक दोनों एक ही हैं । यद्यपि पर्यायाधिक दृष्टि या व्यवहारगय में स्थित है, वह परमात्मा है। से उसमें भेद माना गया है। आत्मा को स्वभाव पर्याय या आत्मा और परमात्मा में सम्बन्ध स्वभाव की ओर आना यही साधना है। जैन धर्म में आत्मा और परमात्मा के पारस्परिक सम्बन्ध साधना पथ और साध्य को लेकर कहा गया है___ जिस प्रकार साधक और साध्य में अभेद माना गया है, उसी "अप्पा सो परमप्पा"। प्रकार साधना मार्ग और साध्य में भी अभेद है । जीवात्मा अपने आत्मा ही परमात्मा है। ज्ञान, अनुभूति और संकल्प के रूप में साधक कहा जाता है, प्रत्येक प्राणी, प्रत्येव चेतनसत्ता परमात्मस्वरूप है। उसके यही ज्ञान, अनुभूति और संकल्प सम्यक् दिशा में नियोजित मोह और ममता और तदजनित कर्मवर्गणाओं के कोहरे में होने पर साधना पथ बन जाते हैं और वे ही जब अपनी पूर्णता हमारा वह परमात्म-स्वरूप छुप गश है । जैसे बादलों के आवरण को प्रकट कर लेते हैं तो सिद्ध बन जाते हैं । जैन धर्म के अनुसार में सूर्य का प्रकाशपुंज छिप जाता है और अन्धकार घिर जाता है, सभ्य ज्ञान, सम्यक-दर्शन, सम्यक् चारित्र और सम्यक्-तप उसी प्रकार मोह-ममता और राग-द्वषरूपी कर्मवर्गणाओं के क्रमशः अनन्त शान, अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति आवरण से आत्मा का अनन्त आनन्द स्वरूप तिरोहित हो जाता की उपलब्धि कर लेते हैं तो यही अवस्था सिद्धि बन जाती है। है और जीव दुःख और पीड़ा से भर जाता है। आत्मा का ज्ञानात्मक पक्ष सम्यक जान की साधना के द्वारा आरमा और परमात्मा में स्वरूपतः कोई भेद नहीं है। धान अनन्त ज्ञान को प्रकट कर लेता है, आत्मा का अनुभूत्यात्मक पक्ष और चावल एक ही है. अन्तर मात्र इतना है कि एक आवरण सम्यक-दर्शन की साधना के द्वारा अनन्त-दर्शन की उपलब्धि कर (छिलके) सहित है और दूसरा निरावरण (छिलके-रहित)। इसी लेता है, आत्मा का संकल्पात्मक पक्ष सम्यक् पारिष की साधना प्रकार बात्मा और परमात्मा एक ही है, फर्क केवल कर्म रूप के द्वारा अनन्त सौख्य की उपलब्धि कर लेता है और आत्मा की आवरण का है। क्रियाशक्ति सम्यक्-तप की साधना के द्वारा अनन्त शक्ति को उप- जिस प्रकार धान के सुमधुर भात का आस्वादन तभी प्राप्त लब्ध कर लेती है। इस प्रकार हम देखते हैं, कि जो साधक हो सकता है जब उसका छिलका उतार दिया जाये; उसी प्रकार चेतता का स्वरूप है वही सम्यक् बन कर साधना पथ बन जाता अपने ही परमात्म स्वरूप की अनुभूति तमी सम्भव है जब हम है और उसी की पूर्णता साध्य होती है। इस प्रकार साधक, अपनी चेतना से मोह-ममता और राग-द्वेष की खोल को उतार साधना पथ और साध्य सभी आत्मा की ही विभिन्न अवस्थाएँ हैं। फैके। छिलके सहित धान के समान मोह-ममता की खोल में आत्मा की विभाव दशा अर्थात् उसकी विषय-वासनाओं में जकड़ी हुई चेतना आत्मा है और छिलके-रहित शुद्ध शुभ्र चावल आसक्ति या रागभाव उसका बन्धन है, अपने इस रागभाव, के रूप में निरावरण शुद्ध चेतना परमात्मा है । कहा हैआसक्ति या ममता को तोड़ने का जो प्रयास है, वहीं साधना है सिद्धा असो जीव है, जीव सोय सिश होय । और उस आसक्ति, ममत्व या रागभाष का टूट जाना ही मुक्ति कर्म मैल का मोतरा, ब्रसे बिरला कोय । है। यही आत्मा का परमात्मा बन जाना है। जैन साधकों ने मोह-ममता रूपी परदे को हटाकर उस पार रहे हुए अपने ही पारमा की तीन अवस्थाएँ मानी है परमात्मस्वरूप का दर्शन सम्भव है। हमें प्रपल परमात्मा को (१) बहिरारमा, पाने का नहीं, इस परदे को हटाने का करना है, परमात्मा तो (२) अन्तरात्मा, और उपस्थित है ही। हमारी गलती यही है कि हम परमात्म स्वरूप (३) परमात्मा। को प्राप्त करना तो चाहते हैं, किन्तु इस आवरण को हटाने का सन्त आनन्दधन जी कहते हैं प्रयास नहीं करते। हमारे प्रयत्नों की दिशा यदि सही हो तो

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 ... 571