________________
त्रिविध साधना-मार्ग
कर्ममार्ग, उपनिषदों का ज्ञानमार्ग और भागवत-सम्प्रदाय का भक्तिमार्ग तथा इनके साथसाथ ही योगसम्प्रदाय का ध्यान-मार्ग, सभी एक-दूसरे से स्वतन्त्र रूप में मोक्षमार्ग समझे जाते रहे हैं। सम्भवतः, गीता एक ऐसी रचना अवश्य है, जो इन सभी साधना-विधियों को स्वीकार करती है। यद्यपि गीताकार ने इन विभिन्न धाराओं को समेटने का प्रयत्न तो किया, लेकिन वह उनको समन्वित नहीं कर पाया, यही कारण था कि परवर्ती टीकाकारों ने अपने पूर्व-संस्कारों के कारण गीता को इनमें से किसी एक साधना-मार्ग का प्रतिपादक बताने का प्रयास किया और गीता में निर्देशित साधना के दूसरे मार्गों को गौण बताया। शंकरने ज्ञान को, रामानुज ने भक्ति को, तिलक ने कर्म को गीता का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय माना।
लेकिन, जैन-विचारकों ने इस त्रिविध साधना-पथको समवेत रूप में ही मोक्षका कारण माना और यह बताया कि ये तीनों एक-दूसरे से अलग होकर नहीं, वरन् समवेत रूप में ही मोक्ष को प्राप्त करासकते हैं। उसने तीनों को समान माना और उनमें से किसी को भी एक के अधीन बनाने का प्रयास नहीं किया। हमें इस भ्रांति से बचना होगा कि श्रद्धा, ज्ञान और आचरण-ये स्वतन्त्र रूप में नैतिक-पूर्णता के मार्ग हो सकते हैं। मानवीय-व्यक्तित्व और नैतिक-साध्य एक पूर्णता है और उसे समवेत रूप में ही पाया जा सकता है।
बौद्ध-परम्परा और जैन-परम्परा-दोनों ही एकांगी दृष्टिकोण नहीं रखते हैं। बौद्ध परम्परा में भी शील, समाधि और प्रज्ञा अथवा प्रज्ञा, श्रद्धा और वीर्य को समवेत रूप में ही निर्वाण का कारण माना गया है। इस प्रकार, बौद्ध और जैन-परम्पराएं न केवल अपने साधना-मार्ग के प्रतिपादन में, वरन् साधन-त्रय के बलाबल के विषय में भी समान दृष्टिकोण रखती हैं।
वस्तुतः, नैतिक-साध्य कास्वरूप औरमानवीय प्रकृति-दोनों ही यह बताते हैं कि त्रिविध साधना-मार्ग अपने समवेत रूप में ही नैतिक-पूर्णता की प्राप्ति करा सकता है। यहाँ इस त्रिविध साधना-पथ का मानवीय-प्रकृति और नैतिक-साध्य से क्या सम्बन्ध है, इसे स्पष्ट कर लेना उपयुक्त होगा।
मानवीय-प्रकृति और त्रिविध साधना-पथ-मानवीय-चेतना के तीन कार्य हैं- 1. जानना 2. अनुभव करना और 3. संकल्प करना। हमारी चेतना का ज्ञानात्मकपक्षन केवल जानना चाहता है, वरन् वह सत्य को ही जानना चाहता है। ज्ञानात्मक-चेतना निरन्तर सत्य की खोज में रहती है, अतः जिस विधि से हमारी ज्ञानात्मक-चेतना सत्य को उपलब्ध कर सके, उसे ही सम्यक्-ज्ञान कहा गया है। सम्यक्-ज्ञान चेतना के ज्ञानात्मकपक्षको सत्य की उपलब्धि की दिशा में ले जाता है। चेतना का दूसरा पक्ष अनुभूति के रूप में आनन्द की खोज करता है। सम्यग्दर्शनचेतना में राग-द्वेषात्मक जो तनाव है, उन्हें समाप्त कर उसे आनन्द प्रदान करता है। चेतना का तीसरा संकल्पनात्मक-पक्ष शक्ति की उपलब्धि और कल्याण की क्रियान्विति चाहता है। सम्यक्चारित्र संकल्प को कल्याण के मार्ग में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org