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आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास
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स्वीकृत हो जाती है - यह छठवां गुणस्थान है। औपनिवेशिक-स्वराज्य की इस अवस्था में जनता पूर्ण स्वतन्त्रता - प्राप्ति का प्रयास करती है, उसके हेतु सजग होकर अपनी शक्ति का संचय करती है - यही सातवाँ गुणस्थान है। आगे, वह अपनी पूर्ण स्वतन्त्रता का उद्घोष करती हुई उन विदेशियों से संघर्ष प्रारम्भ कर देती है। संघर्ष की प्रथम स्थिति में यद्यपि उसकी शक्ति सीमित होती है और शत्रु-वर्ग भयंकर होता है, फिर भी अपने अद्भुत साहस और शौर्य से उसको परास्त करती है - यही आठवाँ गुणस्थान है। नौवाँ गुणस्थान वैसा ही है, जैसे युद्ध के बाद आन्तरिक-अवस्था का सुधार और छिपे हुए शत्रुओं का उन्मूलन किया जाता है। 9.अनिवृत्तिकरण (अनिवृत्ति-बादर-सम्पराय-गुणस्थान)
आध्यात्मिक-विकास के मार्ग पर गतिशील साधक जब कषायों में केवल बीजरूप सूक्ष्म लोभ (संज्वलन) को छोड़कर शेष सभी कषायों का क्षय या उपशमन कर देता है तथा उसके कामवासनात्मक-भाव, जिन्हें जैन-परिभाषा में 'वेद' कहते हैं, समूलरूपेण नष्ट हो जाते हैं, तब आध्यात्मिक-विकास की यह अवस्था प्राप्त होती है। इस अवस्था में साधक में मात्र सूक्ष्म लोभ तथा हास्य, रति, अरति, भय, शोक और घृणा के भाव शेष रहते हैं। ये भाव नोकषाय कहे जाते हैं। साधना की इसअवस्था में भी इन भावों या नोकषायों की समुपस्थिति से कषायों के पुनः उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है, क्योंकि उनके कारण अभी शेष हैं, यद्यपि साधक का उच्चस्तरीय आध्यात्मिक-विकास हो जाने से यह सम्भावना भी अत्यल्प ही होती है। 10. सूक्ष्म सम्पराय
आध्यात्मिक-साधना की इस अवस्था में साधक कषायों के कारणभूत हास्य, रति, अरति, भय, शोक और घृणा-इन पूर्वोक्त 6 भावों को भी नष्ट (क्षय) अथवा दमित (उपशान्त) कर देता है और उसमें मात्र सूक्ष्म लोभ शेष रहता है। जैन पारिभाषिक-शब्दों में मोहनीय-कर्म की 28 कर्म-प्रकृतियों में से 27 कर्म-प्रकृतियों के क्षय या उपशम हो जाने पर जब मात्र संज्वलन-लोभ शेष रहता है, तब साधक इस गुणस्थान में पहुँचता है। इस गुणस्थान को सूक्ष्म सम्पराय इसलिए कहा जाता है कि इसमें आध्यात्मिक-पतन के कारणों में मात्र सूक्ष्म लोभ ही शेष रहता है। लोभ के सूक्ष्म अंश के रहने के कारण ही इसका नाम सम्पराय है । डाक्टर टाँटिया के शब्दों में, आध्यात्मिक-विकास की उच्चता में रहे हुए इस सूक्ष्म लोभ की व्याख्या अवचेतन रूप में शरीर के प्रति रहे हुए राग के अर्थ में की जा सकती
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