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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
बौद्ध-साधनामें आध्यात्मिक-विकास की भूमियाँ
__जैन और बौद्ध साधना-पद्धतियों में निर्वाण एवं मुक्ति के स्वरूप को लेकरमतवैभिन्य भले ही हों, फिर भी दोनों का आदर्श है-निर्वाण की उपलब्धि । साधक जितना अधिक निर्वाण की भूमिका के समीप होता है, उतना ही अधिक आध्यात्मिक-विकास की सीमा
का स्पर्श करता है। जैन-परम्परा में आध्यात्मिक-विकास की चौदह भूमियों मानी गई हैं। बौद्ध-परम्परा में आध्यात्मिक-विकास की इन भूमियों की मान्यता को लेकर उसके अपने ही सम्प्रदायों में मत-वैभिन्य है। श्रावकयान अथवा हीनयान-सम्प्रदाय, जिसका लक्ष्य वैयक्तिक-निर्वाण अथवा अर्हत्-पद की प्राप्ति है, आध्यात्मिक-विकास की चार भूमियाँ मानता है जबकि महायान-सम्प्रदाय, जिसका चरम लक्ष्य बुद्धत्व की प्राप्ति के द्वारा लोकमंगल की साधना है, आध्यात्मिक-विकास की दस भूमियों मानता है। यहाँ हम दोनों ही सम्प्रदायों के दृष्टिकोणों को देखने का प्रयास करेंगे। हीनयान और आध्यात्मिक-विकास
प्राचीन बौद्ध-धर्म में भी जैनधर्म के समान संसारी प्राणियों की दो श्रेणियाँमानी गई हैं- 1. पृथक्-जन या मिथ्यादृष्टि तथा 2. आर्य या सम्यक्दृष्टि । मिथ्यादृष्टित्व अथवा पृथक्जन-अवस्था का काल प्राणी के अविकास का काल है। विकास का काल तो तभी प्रारम्भ होता है, जब साधक सम्यक् दृष्टिकोण को ग्रहण कर निर्वाणगामी मार्ग पर आरूढ़ हो जाता है, फिर भी सभी पृथकजन या मिथ्यादष्टि प्राणी समान नहीं होते। उनमें तारतम्य होता है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिनका दृष्टिकोण मिथ्या होने पर भी आचरण कुछ सम्यक् प्रकार का होता है तथा वे यथार्थ दृष्टि के अतिनिकट होते हैं, अतः पृथक्जन भूमि को दो भागों में बाँटा गया है- 1. प्रथम, अंध पृथक्जन भूमि, यह अज्ञान एवं मिथ्यादृष्टित्व की तीव्रता की अवस्था है एवं 2. कल्याण पृथक्जन भूमि। मज्झिमनिकाय में इस भूमिका निर्देश है, जिसे धर्मानुसारी या श्रद्धानुसारी-भूमि भी कहा गया है। इस भूमि में साधक निर्वाण-मार्ग की ओर अभिमुख तो होता है, लेकिन उसे प्राप्त नहीं करता। इसकी तुलना जैनधर्म में साधक की मार्गानुसारी-अवस्था से की जा सकती है। 25 हीनयान-सम्प्रदाय के अनुसार, सम्यक्दृष्टिसम्पन्न निर्वाण-मार्ग पर आरूढ़ साधक को अपने लक्ष्य, अर्हत्अवस्था को प्राप्त करने तक इन चार भूमियों (अवस्थाओं) को पार करना होता है1. स्रोतापन्न-भूमि, 2. सकृदागामी-भूमि, 3. अनागामी-भूमि और 4. अर्हत्-भूमि। प्रत्येक भूमि में दो अवस्थाएं होती हैं- 1. साधक की अवस्था या मार्गावस्था तथा 2. सिद्धावस्था या फलावस्था।
1.स्रोतापन्न-भूमि- स्रोतापन्न का शाब्दिक अर्थ होता है-धारा में पड़ने वाला, अर्थात् साधक साधना अथवा कल्याणमार्ग के प्रवाह में गिरकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़
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