Book Title: Bharatiya Achar Darshan Part 02
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 524
________________ 522 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन होता है। 37 गीता के अनुसार, यह संशयात्मक एवं अस्थिरता की भूमिका नैतिक एवं आध्यात्मिक-अविकास की अवस्था है। गीता के अनुसार अज्ञानी एवं अश्रद्धालु (मिथ्यादृष्टि) जिस प्रकार विनाश को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार संशयात्मा भी विनाश को प्राप्त होता है। यही नहीं, संशयात्मा की अवस्था तो उनसे अधिक बुरी बनती है, क्योंकि वह भौतिक एवं आध्यात्मिक-दोनों ही प्रकार के सुखों से वंचित रहता है, जबकि मिथ्यादृष्टि प्राणी कम से कम भौतिक-सुखों का तो उपभोग कर ही लेता है। यह अवस्था जैनविचारणा के मिश्र-गुणस्थान से मिलती हुई है, क्योंकि मिश्र-गुणस्थान भी यथार्थदृष्टि और मिथ्यादृष्टि के मध्य अनिश्चय की अवस्था है। यद्यपि जैन-दर्शन के अनुसार इस मिश्रअवस्था में मृत्यु नहीं होती, लेकिन गीता के अनुसार, रजोगुण की भूमिका में मृत्यु होने पर प्राणी आसक्तिप्रधान योनियों को प्राप्त करता हुआ (रजसि प्रलयं गत्वा कर्म संगिषु जायते) मध्यलोक में जन्म-मरण करता रहता है (मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः 24.18)। चतुर्थ भूमिका वह है, जिसमें दृष्टिकोण सात्विक अर्थात् यथार्थ होता है, लेकिन आचरण तामस एवं राजस होता है, इस भूमिका का चित्रण गीता के छठवें एवं नौवें अध्याय में है। छठवें अध्याय में अयतिः श्रद्धायोपेतो' कहकर इस वर्ग का निर्देश किया गया है। 39 नौवें अध्याय में जहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन दुराचारवान् (सुदुराचारी) व्यक्तियों को भी, जो अनन्यभाव से मेरी उपासना करते हैं, साधु (सात्विक-प्रकृति वाला) ही माना जाना चाहिए, क्योंकि उनका दृष्टिकोण सम्यकरूपेण व्यवस्थित हो चुका है। 40 गीता में वर्णित नैतिक विकास - क्रम की यह अवस्था जैन-विचार में अविरतसम्यग्दृष्टि-गुणस्थान से मिलती है। जैन-विचार के समान गीता भी यह स्वीकार करती है कि ऐसा व्यक्ति, जिसका दृष्टिकोण सम्यक् हो गया है, वह वर्तमान में चाहे दुराचारी ही क्यों न हो, वह शीघ्र ही सदाचारी बनकर शाश्वत शान्ति (मुक्ति) प्राप्त करता है, क्योंकि वह साधना की यथार्थ दिशा की ओर मुड़गया है। इसी बात को बौद्ध-विचार में स्रोतापन्न-भूमि, अर्थात् निर्वाणमार्ग के प्रवाह में गिरा हुआ कहकर प्रकट किया गया है। जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन समवेत रूप से यह स्वीकार करते हैं कि ऐसा साधक मुक्ति अवश्य प्राप्त कर लेता है। गीता के अनुसार, नैतिक एवं सात्विक-विकास की पाँची भूमिका यह हो सकती है, जिसमें श्रद्धा एवं बुद्धि तो सात्विक हो, लेकिन आचरण में रजोगुण सत्वोन्मुख होता है, फिर भी वह चित्तवृत्ति की चंचलता का कारण होता है, साथ ही पूर्वावस्था के तमोगुण के संस्कार भी पूर्णतः विलुप्त नहीं हो जाते हैं। तमोगुण एवं रजोगुण की तरतमता के आधार पर इस भूमिका के अनेक उप-विभाग किए जा सकते हैं । जैन-विचार में इस प्रकार के विभाग किए गए हैं, लेकिन गीता में इतनी गहन विवेचना उपलब्ध नहीं है, फिर भी इस भूमिका का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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